भारत में दंगों, नरसंहारों और पलायनों का इतिहास पुराना है। बीते सौ साल में ही वैसी अनेक घटनाएं हुई हैं। इनमें से हर घटना एक फाइल है, मानव-त्रासदी है। इनमें से हर घटना अखबारों की खबरों का हिस्सा बनी है, किंतु एक कथानक बनकर सभी लोगों के जेहन में नहीं समा सकी है। एक जैसी अनेक घटनाओं में से कौन-सी कहानी बनती है और कौन-सी नहीं, यह भी एक समान्तर कथानक है। मनुष्य का मनोविज्ञान ही कुछ वैसा है कि वह प्रत्यक्ष को प्रमाण मानता है और जो नजर से ओझल हो, उसके अस्तित्व के प्रति सजग नहीं रह पाता।
भारत में हुए सभी दंगों और नरसंहारों में एक समानता है। इनमें कोई एक ऐसा समुदाय नहीं था जो हरदम आक्रामक की भूमिका में रहा हो या जो हमेशा ही पीड़ित रहा हो। बारी-बारी से सबने खून की बहती नदी में अपने हाथ धोए हैं। आजादी से पहले भी केवल मोपला, कोहट, नोआखाली, कलकत्ता में दंगे नहीं हुए थे, बिहार और गढ़मुक्तेश्वर में भी हुए थे। दिल्ली और पंजाब में कभी कोई हमलावर था तो कभी कोई और। किन्हीं दंगों में दलितों पर कहर टूटा, किन्हीं में आदवासियों पर, किसी में सिखों पर तो किसी में पूर्वोत्तरवासी निशाने पर रहे। हर क्षेत्र का अपना इतिहास, अपनी जनसांख्यिकी, अपनी लड़ाइयाँ, अपने जटिल समीकरण। ऐसा कोई चश्मा नहीं बना जिससे इन सभी को एक नजर से देखा जा सके या चलचित्र की तरह दिखाया जा सके।
सितंबर और अक्टूबर 1946 में कलकत्ता और नोआखाली में हिंदू-विरोधी दंगे हुए तो इन दोनों जगहों पर महात्मा गांधी पहुँचे। नंगे पाँव गाँव-गाँव घूमे। लोगों के भीतर की मनुष्यता को हाथ जोडकर पुकारते रहे। कलकत्ता और नोआखाली की प्रतिक्रि या में अक्टूबर और नवंबर में बिहार और गढ़मुक्तेश्वर में मुस्लिम-विरोधी दंगे भड़के। महात्मा गांधी ने उन दंगों को भी रोकने की अपील की और आमरण अनशन शुरू किया। आज लोग उपहास करते हैं कि अनशन से भी भला दंगे रुकते हैं किंतु कम से कम उन्होंने मनुष्य की अंत:चेतना को पुकारने का यत्न तो उस कठिन समय में किया क्योंकि इसके सिवा और क्या करते? दंगों को भड़काया तो नहीं, आग में घी तो नहीं डाला, हथियारबंद गिरोहों को खून की होली खेलने का आशीर्वाद तो नहीं दिया, पुलिस से यह तो नहीं कह दिया कि जब कोई किसी पर तलवार उठाए तो तुम आँखें मूँदकर देखते रहना, क्योंकि अतीत में उसके भाई बंधुओं ने तुमको मारा था?
आजादी के बाद विभाजन में किस कौम के कितने लोग मरे, कोई हिसाब नहीं लेकिन किसी एक ही कौम के लोग नहीं मरे थे। स5 47 के जम्मू दंगों में हिंदू-सिखों से ज्यादा मुसलमान मारे गए। 1948 में दिल्ली में खून की नदियाँ बहीं जिसमें हिंदुओं-मुसलमानों-सिखों का लहू मिला-जुला था। 48 में ही चितपावन ब्राह्मणों को दंगाइयों ने मारा और रजाकारों ने हैदराबादियों को हलाक किया। 1966 के गोवध विरोधी आंदोलन में हिंदू साधुओं ने प्राणों की आहुति दी। 1980 के दशक में पंजाब, त्रिपुरा, असम जलते रहे। 84 में हजारों सिखों को मारा गया। 1989 के भागलपुर दंगों में मरने वाले बहुसंख्य मुसलमान थे। 1990 में कश्मीरी पंडितों पर कहर टूटा। 1997 में लक्ष्मणपुर बाठे में रणवीर सेना ने जिस तरह से दलितों की हत्या की, वह किसी को आज याद है?
2002 में गोधरा और गुजरात का कलंक भले सामूहिक-स्मृति में दबा दिया गया है, सुविधापूर्ण तरीके से उसके किसी एक पहलू को जब-तब खोल दिया जाता है किन्तु क्या उसके समग्र चित्र को छुपाया जा सकता है? 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे और 2020 के दिल्ली दंगे तो निकट-स्मृति में हैं किन्तु 2021 में नगालैंड का नरसंहार किसी को याद तक नहीं होगा। क्या कुछ हत्याकाण्ड दूसरों की तुलना में अधिक यादगार होते हैं? क्या किसी खून का महत्व दूसरों की तुलना में कम या ज्यादा आँका जा सकता है? क्या कुछ घाव सहेजने लायक, कुछ कुरेदने लायक और कुछ मरहम के मोहताज होते हैं?
इन सभी दंगों और नरसंहारों की एक उपकथा है-निर्दोष मारा गया और राज्यसत्ता अपने दायित्वों के निर्वहन में नाकाम रही। इन सबमें एक और उपकथा है-किसी और के प्रति विद्वेष का बदला किसी और से लिया गया। अपराध कहीं और हुआ था, सजा किसी और को मिली। इन सबमें महिलाओं और बच्चों ने सबसे ज्यादा त्रसदी झेली। अनेक घर जले।
ये सभी फाइलें हैं। भारत के इतिहास में कोई एक फाइल नहीं है, फाइलों का अंबार है। गुजरात दंगों पर फिराक जैसी मानवीय फिल्म बनाई गई थी। मुझे याद नहीं आता उसे किसी ने इतनी संख्या में देखा हो, देखने का आग्रह किया हो, सरकारों ने उसे करमुक्त किया हो? क्या इसलिए कि वह फिल्म हमें शर्म से भरती थी? या वह ‘उनके लोगों’ के हत्याकांड पर केंद्रित थी, ‘हमारे लोगों’ की हत्याओं पर नहीं? तो क्या इसकी तुलना में कुछ वैसी त्रसदियाँ भी हो सकती हैं जो हमें ग्लानिमुक्त करती हों?
सामूहिक अवचेतन बहुत विचित्र तरह से काम करता है। वह किसी परिघटना को यों ही नहीं बड़ा बना देता, उसके पीछे अनेक सरणियाँ काम कर रही होती हैं। मनुष्य की बुनियादी वृत्ति अपने और पराये का भेद है। किसी देश का बहुसंचय समुदाय अगर अपने दु:ख को बड़ा बताकर दूसरों के दु:खों को नजरअंदाज करने लगे तो सा या-बल से उसका आकार बड़ा हो जाएगा किन्तु सच से बड़ा कुछ नहीं होता। संख्या-बल का एक और लाभ यह है कि वह चुनावी-राजनीति में एक लाभप्रद समीकरण है अन्यथा सरकारी खजाने की फिक्र छोडकर मनोरंजन-कर से कोई यों ही हाथ नहीं धोता। सरकारें चाहती कि लोग क्या देखें क्या नहीं। किस विषय पर बात करें किस पर नहीं और जब लोग वैसा करते हैं तो सरकारें मन ही मन मुस्कराती हैं।
किन्तु त्रसदियों में भेद करना मनुष्यता के विरुद्ध एक बड़ा अपराध है। भविष्य की और बड़ी त्रसदियों को न्योता है। हत्याकाण्डों को भुलाया नहीं जाना चाहिए किन्तु जो हत्याकाण्ड हमें रोष से भरते हैं, उनकी तुलना में ग्लानि और लज्जा से भरने वाले हत्याकाण्डों को त्याज्य या नगण्य समझना भी एक गंभीर नैतिक भूल ही कहलाएगी।
सुशोभित