डॉ. मेजर हिमांशु
नेहरू जी के लिए देश सर्वोपरि था। आजादी से पहले कश्मीर के लोकतांत्रिक आंदोलन के कारण जेल में बंद शेख अब्दुल्लाह के वो वकील थे। उन्हें जेल से रिहा कराया। आजादी के बाद जब शेख साहब भारतीय हित के रास्ते से डिगे तो प्रधानमंत्री नेहरू ने ही उन्हें 10 साल जेल में भी रखा। हां उनके परिवार का ख्याल रख कर मित्रता का धर्म भी निभाया। तब अपने जान माल को दांव पर लगा कर जिन्ना के पाकिस्तान के बजाए गांधी के हिन्दुस्तान आने वाले कश्मीर घाटी के आवाम में अगर आज कोई नाराजगी है तो उसका समाधान नश्तर नहीं मरहम है। नकारने और झुठलाने से समाधान नहीं होते, जख्म नासूर बनते है। नेहरू को कोसना आसान है, नेहरू बने रहना बहुत मुश्किल।
कश्मीर विवाद में नेहरू जी की भूमिका को लेकर व्हाटसअप यूनिवर्सिटी का बाजार अटा पड़ा है। पहले सिर्फ किताब पढना काफी था अब सूचना क्रान्ति के दौर में झूठ और अफवाहों से सच छांटना भी पड़ता है। इन अफवाहों के मुताबिक इस मुद्दे पर नेहरू मुख्यत: कश्मीर के भारत में विलय की प्रक्रिया का सत्यानाश करने, कश्मीर मुददे को संयुक्त राष्ट्र में बेवजह ले जाने और खुद कश्मीरी होने के कारण कश्मीर से लगाव के चलते धारा 370 जैसे पक्षपाती प्रस्तावों को स्वीकार करने के आरोपी हैं। तथ्यों और तर्कों की कसौटी पर खरे नहीं उतरने वाले इन आरोपों की पीछे नेहरू जैसे बहुआयामी कद्दावर नेता को गिरा कर उनसे होड लेने की इच्छा पालने वाले बौने लोग हैं। छोटे दिल दिमाग के लोग खुद ऊंचाइयां छू नहीं पाते और नीयत व काबीलियत न होने के कारण किसी को ऊंचा उठा भी नहीं पाते हैं। इनकी अपनी या इनके अपनों की हैसियत नहीं होती तो पीछे से इन अफवाहों को पंख नेहरू के खिलाफ सरदार पटेल को खड़ा कर देने की कोशिश करते रहते हैं। सगे ये पटेल के भी नहीं हो पाते। घृणा सच देखने नहीं देती। झूठ व अफवाहों की पक्की साथी घृणा है, इसलिए ये नफरत फैलाते हैं। काफी मासूम इनका शिकार भी हो जाते हैं। पूर्ण तो कोई भी नहीं।
उन विपरीत परिस्थितियों में काश्मीर के भारत में विलय का श्रेय कश्मीर घाटी की जनता, खासकर शेख अब्दुल्लाह जैसे नेताओं के नेतृत्व में घाटी के मुस्लिम आवास के सहयोग, गांधी, नेहरू पटेल जैसों की दूरदर्शिता व तैयारी, वी पी मेनन तथा मेहरचन्द महाजन सरीखे अधिकारियों की दक्षता और सबसे ऊपर भारतीय सशस्त्र सेनाओं के शौर्य और बलिदान को है। कश्मीर हमेशा समृद्ध राज्य रहा है और आज भी है। मुस्लिम बाहुल्य सूफी परम्परा वाली कश्मीर घाटी आजादी के वक्त भी प्राकृतिक सम्पदा से सम्पन्न और मानव विकास सूचकांको जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, आय, रोजगार, मृत्यु दर, बाल व महिला विकास के मापदंडों की दृष्टि से ऊंचे पायदान पर थी। भारत पाकिस्तान बंटवारे का आधार ही था हिन्दू मुस्लिम आबादी के क्षेत्र। बंटवारा हिन्दू मुसलमान का नहीं था। इसी आधार पर सीमावर्ती पूर्वी पंजाब और पश्चिम बंगाल हिन्दुस्तान में शामिल हुए थे तथा पश्चिम पंजाब व पूर्वी बंगाल पाकिस्तान में। सीमावर्ती कश्मीर घाटी के मुस्लिम बाहुल्य होने के कारण पाकिस्तान अपना दावा स्वाभाविक मानता था। सिर्फ कश्मीर महाराज की रजामंदी भारत के लिए नाकाफी थी और अगस्त में आजादी के वक्त तो भारत के पास वो भी नहीं थी। महाराज कश्मीर हरि सिंह हिन्दू तो थे पर कश्मीर के स्वतंत्र अलग राज्य के पक्षधर भी। उनके प्रधानमंत्री रामचन्द्र काक अपने मित्र जिन्ना की ओर झुकाव रखते थे।
जूनागढ और हैदराबाद के मुस्लिम नवाबों की पाकिस्तान में विलय की इच्छा के विरूद्ध, जूनागढ और हैदराबाद के हिन्दू बाहुल्य होने के कारण भारत दावा ठोक रहा था। सहज बुद्धि से सरदार पटेल ने कैबिनेट मीटिंग में हिन्दू बाहुल्य जूनागढ और हैदराबाद में इसी आधार पर रूचि व्यक्त की, मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर में नहीं। गांधी नेहरू कश्मीर घाटी की भौगोलिक, सामरिक और रणनीतिक महत्ता जानते थे व अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति समझ रहे थे। मामला नेहरू के कश्मीरी मूल से उपजी आसक्ति का नहीं था। रूस, चीन और अफगानिस्तान की कश्मीर घाटी से सटी सीमाओं का था। पश्चिमी ताकतों को इस इलाके में पांव जड़ जमाने के लिए भारत का विभाजन और कश्मीर घाटी अशांत, स्वतंत्र या पाकिस्तान में जरूरी थी। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा जैसे सांप्रदायिक संगठन छोटे लालच, नासमझी तथा घृणा में इस खेल को समझ नहीं पा रहे थे और इन ताकतों के मोहरे जाने अनजाने बन रहे थे। पटेल भी बाद में गांधी नेहरू से सहमत हुए और उनकी इस दूरदर्शिता को उन्होंने पत्राचार में सराहा भी। जम्मू लद्दाख की कभी समस्या थी नहीं। कश्मीर घाटी के भारत में विलय के लिए कश्मीर महाराज की सहमति जरूरी थी और उससे भी ज्यादा जरूरी था घाटी के बहुसंख्यक मुस्लिम आवाम को अपनी तरफ करना। घाटी में शेख अबदुल्लाह जैसे नेता, जिनकी आवाम पर अच्छी पकड थी, उनसे नेहरू जी के अनुकूल संबंध और गांधी जी की साख काम आयी। जिन्ना के मित्र रामचन्द्र काक की जगह बाद में कश्मीर महाराज के प्रधानमंत्री बने जस्टिस मेहरचन्द महाजन भी बहुत काम आए।
आजादी के बाद काम तो कश्मीरी आवाम पर अक्टूबर 1947 में कहर बरपाने वाला कबाइलियों का हमला भी आया, महाराज हरि सिंह का स्वतंत्र कश्मीर का भ्रम तोड़ने में और कश्मीरी आवाम को भारत से जोड़ने में। हिन्दोस्तान भले ही सभ्यता के लिहाज से राष्ट्र रहा हो पर बंटा हुआ तो स्वतंत्र रियासतों में ही था। राजाओं और नवाबों की स्वतंत्र रियासतों की चाह उस समय न तो अजूबी थी, न राष्ट्र विरोधी। उनकी जिम्मेदारी अपनी रियासतों और रियाया भर की थी। महाराज कश्मीर और शेख अब्दुल्लाह दोनों कबाइली हमले के बाद कश्मीर घाटी की रियाया या आवाम के लिए चिन्तित थे और भारत एकमात्र सहारा बचा था।
25 अक्टूबर तक कबाईली ओल्ड एयर फील्ड श्रीनगर तक पहुंच चुके थे। महाराज सड़क के रास्ते श्रीनगर से खजाना दस्तावेज जरूरी सामान लेकर 26 अक्टूबर जम्मू पहुंचे। वहां भारत सरकार के प्रतिनिधि अधिकारी वीपी मेनन के साथ कश्मीर के सशर्त विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए। उस नाजुक हालात और समय की कमी में जो सबसे बेहतर हो सकता था किया गया। हालात नाजुक महाराज के लिए ही नहीं हिन्दुस्तान के लिए भी थे। मोल भाव में संभव है हम कश्मीर घाटी खो बैठते। अक्टूबर का आखिर था और सर्दी में घाटी बर्फबारी के कारण देश से कट जाती है। मार्ग दुर्गम थे। बंटवारे के बाद की आग में देश बंगाल से पंजाब तक झुलसा हुआ था। साधन, सेना, हथियार, रसद सब सीमित थे और परिस्थितियां प्रतिकूल। एैसे में भारतीय नेतृत्व का पूर्व अनुमान और तैयारियां काम आर्इं और 27 अक्टूबर 1947 को भारतीय फौज हवाई मार्ग से श्रीनगर पहुंच गई। सेना ने आवाम के सहयोग और अपने शौर्य व पराक्रम से श्रीनगर से उरी तक 100 किमी कश्मीर घाटी मुक्त करायी। यदि आज के हालात या कारगिल युद्ध से हम तुलना करें तो यह राजनीतिक इच्छा शक्ति दक्षता व सैन्य सामरिक कौशल की कहीं बडी कामयाबी थी।
यह बात काबिले गौर है कि कबाईली हमले या महाराज के विलय पत्र पर हस्ताक्षर से पहले भारत की किसी भी प्रकार सैनिक कार्रवाई कश्मीर पर आक्रमण मानी जाती और शायद कश्मीरी आवाम को भी भारत के खिलाफ खडा कर देती। वैसे भारत या पाकिस्तान का नेतृत्व उस वक्त चाह कर भी अपनी अपनी फौजों को यूं ही कहीं भी चढ़ाई पर भेजने की स्थिति में भी नहीं था। हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी दोनों फौजों की कमाण्ड नेहरू या जिन्ना के पास नहीं, अंग्रेजों के पास थी। दोनों फौजों के सुप्रीम कमाण्डर थे फील्ड मार्शल सर क्लॉड आॅचिनलेक। पाकिस्तान सेनाध्यक्ष जनरल ग्रेसी थे। अंगे्रजी अफसर आपस में लडने से मना कर चुके थे। बेवजह नहीं था कि पाकिस्तान ने सेना नहीं कबाइलियों को आगे किया। महाराज हरि सिंह की सहमति के बाद कश्मीरी मुस्लिम आवाम का शेख अब्दुल्लाह के नेतृत्व में गांधी नेहरू के हिन्दुस्तान के साथ आना गांधी जी के बहुलतावाद की बडी जीत थी और जिन्ना व सावरकर के द्विराष्ट्र सिद्धान्त की बड़ी हार। अब भारत की रणनीति के खाते में नैतिकता और मानवता भी थी। कश्मीर विलय में जनमत संग्रह की शर्त का दांव उन हालात में एकदम जोखिम भरा नहीं था। ऊंट किस तरफ बैठता यह जिन्ना के माऊन्टबैटन से जनमत संगह के विरोध से साफ था। कश्मीरी मुस्लिम आवाम में जो थोड़ी बहुत असमंजस होती वो कबाइली हमले की बर्बरियत ने झाड़ पोछ दी थी।
फौजी कार्रवाई हिन्दोस्तान ने अक्टूबर 1947 से जनवरी 1949 तक, एक साल से ज्यादा वक्त जारी रखी और जो उन हालात में जो हासिल हो सकता था किया गया। युद्ध और हालत किसी की इच्छा से नहीं तरलता से चलते है। उस वक्त फौज उरी से मुजफ्फराबाद कूच कर शायद उसे आजाद करा लेती पर तब जोखिम पूंछ-राजौरी को खोने और वहां एक बडेÞ हिन्दु कत्ले आम का था। सेना सीमित थी, समय भी। आर्थिक संकट, हिंसा, दंगों से जूझ रहे, हजारों समस्या झेलते किसी नये-नये आजाद हुए देश के लिए इतनी लंबी जंग आसान नहीं होती। फौज और फौजियों के लिए भी नहीं।
बंटवारे के वक्त सीमावर्ती होने के बावजूद कश्मीर घाटी में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए। देश के अन्य भागों खासकर जम्मू में साम्प्रदायिक दंगे अपनी मर्जी से हिन्दुस्तान आए कश्मीर घाटी के मुस्लिमों के कान खडे कर रहे थे और घाटी में हिन्दुस्तान के लिए मुश्किलें भी। शातिर, सांप्रदायिक, दंगाई संगठन भावनाएं उभाड़ कर हिन्दू मुस्लिमों का अपने अपने पालों में धु्रवीकरण कर रहे थे। यह दंगे देश के लिए घातक थे और यह कारगुजारियां देशद्रोह ही थी। मोहरा बन रहे थे मासूम जज्बाती आम नागरिक।
कश्मीर की अन्तर्राष्ट्रीय महत्ता और घाटी में हालात के मददेनजर, घाटी के लोगों के मन में पड़ रहे डर और आशंका के बीजों का समाधान तब कश्मीरी लोगों को खास दर्जा देकर ही किया जा सकता था वरना बाजी कभी भी पलट सकती थी। राजा और शेख अबदुल्लाह की असहमतियां जग जाहिर थीं। हर पक्ष अपने अपने विकल्प तलाश रहा था। हिन्दू उन्माद हमें लद्दाख व जम्मू ही दिलवा सकता था जो भारत के पास यूं भी थे पर कश्मीर हाथ से निकलवा सकता था। मुसलमान नवाबों की रजामंदी न होने के बावजूद जूनागढ़ और हैदराबाद के भारत में विलय में वहां बहुसंख्यक हिन्दू जनता की राय शुमारी महत्वपूर्ण रही थी। ऐसे हालात में घाटी में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए धारा 370 के तहत जम्मू कश्मीर व लद्दाख के लोगों को विशेष अधिकार शानदार विकल्प था। इन इलाकों को अलग-अलग करने से भी भारत का पक्ष कमजोर होता। धारा 370 के तहत मिले अधिकार तो सामाजिक, सांस्कृतिक संरक्षण हेतु कई पर्वतीय व उत्तरी पूर्व के राज्यों के नागरिकों व आदिवासी क्षेत्रों को आज भी मिले हुए हैं। बस इन क्षेत्रों और राज्यों में हिन्दू मुस्लिम विभाजन की राजनीति नहीं सधती इसलिए विवादित नहीं होते।
कामयाब फौजी कार्रवाई के बाद अगली कूटनीतिक लडाई पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर बेनकाब कर पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत का दावा मजबूत करना थी। फौजी कार्रवाई जनवरी 1949 तक रोके बिना भारत का जनवरी 1948 में संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर विवाद को ले जाना तब अच्छी रणनीति थी। विलय पत्र हाथ में होने और कश्मीर घाटी की जनता, खासतौर पर मुस्लिम आबादी के भारत साथ होने के कारण संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थिति मजबूत थी कुछ पश्चिमी ताकतों के बावजूद। समझौते के तीन चरणों में ‘यृद्ध विराम’ और ‘युद्ध विराम समझौता’ के दो चरण फौजी मामले थे। तीसरा चरण, ‘भविष्य की योजना निर्धारण’ कूटनीतिक था। देश और फौज, हिन्दुस्तान हो या पाकिस्तान लंबे समय तक या अनिश्चितता से युद्ध में नहीं झोंके जा सकते थे। समझौते की शर्तों के मुताबिक जनमत संग्रह की पहली शर्त ही शांति स्थापना और पाक अधिकृत कश्मीर से पाकिस्तानियों और पाकिस्तानी फौज का इलाका खाली करना थी। भारत कश्मीर में सीमत फौज रख सकता था। समझौता साफ तौर पर भारत के अनुकूल था। एक और बडी कूटनीतिक विजय नेहरू ने सोवियत संघ के राष्ट्राध्यक्ष नीकिती क्रुश्चेफ को कश्मीर ले जाकर और भारत के पक्ष में बयान दिलवा कर हासिल की।
नेहरू जी के लिए देश सर्वोपरि था। आजादी से पहले कश्मीर के लोकतांत्रिक आंदोलन के कारण जेल में बंद शेख अब्दुल्लाह के वो वकील थे। उन्हें जेल से रिहा कराया। आजादी के बाद जब शेख साहब भारतीय हित के रास्ते से डिगे तो प्रधानमंत्री नेहरू ने ही उन्हें 10 साल जेल में भी रखा। हां उनके परिवार का ख्याल रख कर मित्रता का धर्म भी निभाया। तब अपने जान माल को दांव पर लगा कर जिन्ना के पाकिस्तान के बजाए गांधी के हिन्दुस्तान आने वाले कश्मीर घाटी के आवाम में अगर आज कोई नाराजगी है तो उसका समाधान नश्तर नहीं मरहम है। नकारने और झुठलाने से समाधान नहीं होते, जख्म नासूर बनते है। नेहरू को कोसना आसान है, नेहरू बने रहना बहुत मुश्किल।