पर्यावरण के लिए प्लास्टिक पूरी दुनिया में बेहद खतरनाक साबित हो रहा है। इसीलिए इसका उपयोग सीमित करने और कई प्रकार के प्लास्टिक पर प्रतिबंध की मांग उठती रही है।
भारत में भी ऐसी ही मांग निरन्तर होती रही है और समय-समय पर इसके लिए अदालतों द्वारा सख्त निर्देश भी जारी किए जाते रहे हैं, किन्तु इन निर्देशों का पालन कराने में सख्ती का अभाव सदैव स्पष्ट परिलक्षित होता रहा है।
भारत में 1990 में पॉलीथीन की जो खपत करीब बीस हजार टन थी, वह अगले डेढ़ दशकों में ही कई गुना बढ़कर तीन लाख टन से भी ज्यादा हो गई।
10 अगस्त 2017 को नेशनल ग्राीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के तत्कालीन चेयरपर्सन स्वतंत्र कुमार की अगुवाई वाली बेंच ने अपने एक अहम फैसले में दिल्ली में 50 माइक्रोन से कम मोटाई वाली नॉन बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक की थैलियों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाते हुए सरकार को एक सप्ताह के भीतर ऐसे प्लास्टिक के सारे भंडार को जब्त करने का आदेश देते हुए कहा था कि दिल्ली में अगर किसी व्यक्ति के पास से प्रतिबंधित प्लास्टिक बरामद होते हैं तो उसे पर्यावरण क्षतिपूर्ति के रूप में 5 हजार रुपये की राशि भरनी होगी।
देश के बीस से भी अधिक राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में प्रतिबंधित प्लास्टिक को लेकर इसी तरह के नियम लागू हैं, लेकिन विडम्बना ही है कि सख्ती के अभाव में इतना समय बीत जाने के बाद भी दिल्ली तथा देश के अन्य तमाम राज्यों में पॉलीथिन का उपयोग बदस्तूर जारी है।
अगर प्रतिबंधित प्लास्टिक के उपयोग में कमी नहीं आ रही है तो इसका सीधा और स्पष्ट अर्थ यही है कि इनके उत्पादन, बिक्री और उपयोग को लेकर संबंधित विभागों का रवैया बेहद गैर-जिम्मेदाराना और लापरवाही भरा रहा है।
अक्सर देखा जाता है कि हमारी छोटी-बड़ी लापरवाहियों और कचरा प्रबंधन प्रणालियों की खामियों की वजह से पॉलीथीन या अन्य प्लास्टिक कचरा नालियों में भरा रहता है, जो नालियां, ड्रेनेज और सीवरेज सिस्टम को ठप्प कर देता है।
यही कचरा अब नदियों के बहाव को अवरूद्ध करने में भी सहायक बनने लगा है, जो अब थोड़ी सी ज्यादा बारिश होते ही जगह-जगह बाढ़ जैसी परिस्थितियां उत्पन्न करने में भूमिका निभाता है।
1988 और 1998 में बांग्लादेश में आई भयानक बाढ़ का कारण यही प्लास्टिक ही था, क्योंकि नालियों या नालों में प्लास्टिक जमा हो जाने से वहां के नाले जाम हो गए थे और इसीलिए इससे सबक लेते हुए बांग्लादेश में 2002 से प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
आयरलैंड में प्लास्टिक थैलियों के इस्तेमाल पर 90 फीसदी टैक्स लगा दिया गया, जिसके चलते इनका इस्तेमाल बहुत कम हो गया। आस्ट्रेलिया में सरकार की अपील से ही वहां इन थैलियों के इस्तेमाल में 90 फीसदी कमी आई।
अफ्रीका महाद्वीप के देश रवांडा में प्लास्टिक बैग बनाने, खरीदने और इस्तेमाल करने पर जुर्माने का प्रावधान है। फ्रांस ने 2002 में प्लास्टिक पर पाबंदी लगाने का अभियान शुरू किया और 2010 में इसे पूरे देश में पूरी तरह से लागू कर दिया गया।
न्यूयॉर्क शहर में रिसाइकल नहीं हो सकने वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा है। चीन, मलेशिया, वियतनाम, थाईलैंड, इटली इत्यादि देशों ने प्लास्टिक कचरे के आयात पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगाए हैं।
चीन विश्व का सबसे बड़ा प्लास्टिक कचरा आयातक देश रहा है लेकिन उसने भी कुछ समय पहले 24 श्रेणियों के ठोस प्लास्टिक कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया था।
हालांकि भारत द्वारा भी ‘खतरनाक अपशिष्टों के प्रबंधन और आयात से जुड़े नियम 2015’ में संशोधन करते हुए 1 मार्च 2019 को ठोस प्लास्टिक के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया गया था किन्तु इन नियमों में कुछ खामियों के चलते अभी भी देश में प्लास्टिक कचरे के आयात को छूट मिल रही है और इसी का फायदा उठाकर प्लास्टिक की खाली बोतलों को महीन कचरे के रूप में आयात किया जा रहा है।
देश में प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होने के आंकड़ों पर नजर डालें तो इसमें सबसे बड़ा योगदान दिल्ली का रहता है, जहां पूरा दिन उत्पन्न होने वाले तमाम तरह के कचरे में 10.14 फीसदी हिस्सा प्लास्टिक कचरे का ही होता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा 2015 में एकत्रित किए गए आंकड़ों के आधार पर जारी रिपोर्ट के अनुसार देशभर में प्रतिदिन 25940 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जिसमें से देश के कुल 60 शहरों का ही योगदान 4059 टन का रहता है।
दिल्ली में सर्वाधिक 689.52 टन, चेन्नई में 429.36, मुम्बई में 408.27, बेंगलुरू में 313.87, हैदराबाद में 119.33 टन प्लास्टिक कचरा रोजाना पैदा होता है। एक अन्य जानकारी के अनुसार 2017-18 में देशभर में कुल साढ़े छह लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पादित हुआ था।
इस प्लास्टिक कचरे में सबसे बड़ा योगदान खाली प्लास्टिक बोतलों का होता है। सीपीसीबी के अनुसार 2015-16 में भारत में लगभग 900 किलो टन प्लास्टिक बोतलों का उत्पादन किया गया था।
प्लास्टिक कचरे का लगभग आधा हिस्सा या तो नालों के जरिये जलाशयों में मिल जाता है या गैर-शोधित रूप में किसी भू-भाग पर पड़ा रहकर धरती और वायु को प्रदूषित करता है।
सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कार्य कर रहे हैं, किंतु वे अपने कार्य के प्रति कितने संजीदा हैं, यह जानने के लिए इतना जान लेना ही पर्याप्त होगा कि 2017-18 में इनमें से सिर्फ 14 बोर्ड ही ऐसे थे, जिन्होंने अपने यहां प्लास्टिक कचरे के उत्पादन के बारे में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को जानकारी दी।
प्लास्टिक के उपयोग को कम करने के लिए जागरूकता बढ़ाने के साथ अदालती निर्देशों का सख्ती से पालन भी सुनिश्चित करना होगा।