एक समय मिस्र में संत जुन्नून का बड़ा नाम था। उनसे बड़े-बड़े ज्ञानी लोग दीक्षा लेना चाहते थे। संत यूसुफ हुसैन ने उनसे दीक्षा लेने की प्रबल इच्छा प्रकट की। उन्होंने मान लिया और बोले, ‘दीक्षा प्राप्त करने से पहले तुम्हें एक काम करना होगा। तुम्हें नील नदी के किनारे एक संत के पास जाकर उन्हें यह बक्सा सौंपना होगा।’ इसके बाद उन्होंने एक बक्सा संत यूसुफ को पकड़ा दिया। यूसुफ बक्सा लेकर चल पड़े। रास्ता काफी लंबा था। बार-बार उनकी नजर बक्से पर जाती। बक्से में ताला नहीं था।
उन्होंने सोचा कि क्यों न बक्से को खोलकर देखें कि एक संत दूसरे संत को सौगात में क्या देना चाहता है? यूसुफ एक छायादार पेड़ के नीचे बैठ गए और कर ढक्कन खोला। ढक्कन खोलते ही उसमें से एक चूहा निकल कर भाग गया। यूसुफ चूहे के पीछे भागे, लेकिन चूहा भला उनके हाथ कहां आता? और बक्से में कुछ नहीं था। यूसुफ काफी दुखी हुए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि नील नदी के संत को क्या कहेंगे? आखिर वह उस संत के पास पहुंचे और बक्सा उन्हें देते हुए बोले, ‘क्षमा करना।
मैं खुद पर काबू नहीं रख पाया और बक्से का ढक्कन हटा बैठा और इसके अंदर बंद चूहा निकल कर भाग गया।’ इस पर संत बोले, ‘ठीक है, आप यही बात महात्मा जुन्नून को बता देना।’ दरअसल, ऐसा करके वह तुम्हारे आत्मसंयम की परीक्षा लेना चाहते थे, लेकिन अफसोस कि तुम परीक्षा में खरे नहीं उतरे।’ यह सुनकर यूसुफ दुखी मन से महात्मा जुन्नून के पास पहुंचे और उन्हें सारी बात बता दी। जुन्नून कुछ देर तक बिल्कुल शांत रहे फिर सहजता से बोले, ‘जो व्यक्ति एक चूहा संभालकर नहीं पहुंचा सकता, वह परम ज्ञान का अधिकारी नहीं। आप लौट जाओ और पहले आत्म संयम का अभ्यास करो। तभी आपको दीक्षा मिलेगी।’ यूसुफ अपने घर लौट आए और आत्मसंयम का अभ्यास करने लगे।