Saturday, June 22, 2024
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रोटी और कमल के फेरे लगवाने वाला महानायक

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krishan partap singhऐ शहीदे मुल्को मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार/अब तेरी हिम्मत का चर्चा गैर की महफिल में है।’ बिहार स्थित अजीमाबाद (अब पटना) के स्वतंत्रता सेनानी/शायर बिस्मिल अजीमाबादी की रची ये पंक्तियां 1857 में लड़े गए देश के पहले स्वतंत्रता सग्राम के अवध के हरदिलअजीज महानायक मौलवी अहमदउल्लाह शाह के व्यक्तित्व व कृतित्व के सिलसिले में इतनी मौजूं हैं कि लगता ही नहीं कि ये उनकी शहादत के कई दशकों बाद रची गयीं। कुछ लोगों के अनुसार इन्हें ऐतिहासिक काकोरी ऐक्शन के शहीद रामप्रसाद बिस्मिल ने रचा जो अपने नामराशि अजीमाबादी की ‘सरफरोशी की तमन्ना’ के मुक्तकंठ प्रशंसक थे। जो भी हो, मौलवी के अप्रतिम जीवट और ‘मुल्क सबसे ऊपर’ वाली मान्यता का करिश्मा ही था कि उस स्वतंत्रता संग्राम में अवध के हिन्दू-मुसलमान सितम्बर, 1857 में दिल्ली के पतन के बाद भी कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते रहे। अंग्रेज लाख जतन करके भी उनकी एकता खंडित नहीं कर पाये। इसको लेकर मौलवी की हिम्मत का अंग्रेजों की महफिलों में ऐसा चर्चा हुआ कि वे उन्हें 1857 का फौलादी शेर कहने लगे। उनके अधिकारियों ने भी बारम्बार मौलवी की प्रशंसा की। थॉमस सीटन ने उन्हें ‘अद्भुत क्षमताओं वाला नायक’ और ‘विद्रोहियों के बीच सबसे अच्छा सैनिक’ बताया।

साथ ही उनके दृढ संकल्प, साहस, वीरता व संगठन शक्ति को अवध से अंग्रेजों के पांव उखड़ने का सबसे बड़ा कारण करार दिया। इसी तरह होम्स ने लिखा-मौलवी ‘उत्तर भारत में अंग्रेजों का सबसे जबरदस्त शत्रु’ और ‘पूरी तरह जनता का आदमी’ था। एक अन्य अंग्रेज अधिकारी जार्ज बूस मॉलसन ने उक्त स्वतंत्रता संग्राम पर अपनी पुस्तक में मौलवी का कई बार जिक्र किया और लिखा कि जब तक अपने देश की जबरन छीन ली गई आजादी की वापसी के लिए लड़नें व शहीद होने वालों को देशभक्त कहने की परम्परा कायम रहेगी, मौलवी को देशभक्त कहा जाता रहेगा। मॉलसन के मुताबिक, ‘यह संदेह से परे है कि 1857 के विद्रोह के पीछे, मौलवी का दिमाग और प्रयास महत्वपूर्ण थे। विद्रोह के प्रसार के लिए रोटी और कमल के फेरों की योजना के पीछे भी वही थे।’

इस योजना के तहत छावनी-छावनी, गांव-गांव और शहर-शहर साधु-फकीरों, सिपाहियों व चौकीदारों के जरिये रोटी व कमल का फेरा लगाया जाता था। फेरे के तहत जो रोटियां आती थीं, उन्हें खाकर वैसी ही दूसरी रोटियां बनवाकर दूसरी छावनियों, गांवों या शहरों को रवाना कर दी जाती थीं। जो लोग वे रोटियां खाते, जाति व धर्म के भेदभाव के बगैर वे मान लेते थे कि हम भी गदर में शामिल हो गए हैं। कहते हैं कि लड़ाइयों के दौरान मुकाबला कितना भी कांटे का हो, मौलवी अपनी नैतिकताओं का दामन नहीं छोड़ते थे। न ही निदोर्षों, मासूमों और महिलाओं का खून बहाकर अपनी तलवार को कलंकित करते थे। उनके निकट सारी लड़ाइयां उनके इस संकल्प की पूर्ति का साधन थीं कि सीने में सांस रहते नाइंसाफी को मंजूर नहीं करेंगे। सत्तासुख से वे दूर-दूर ही रहते थे और अवध पर बागियों के कब्जे के बाद वीरांगना बेगम हजरतमहल के अवयस्क बेटे बिरजिस कदर की ताजपोशी हुई तो भी हुकूमत का हिस्सा नहीं बने। रेजीडेंसी में शरण लिये अंग्रेजों को मजा चखाने की जुगत करते रहे।

इससे पहले फरवरी, 1857 में वे अपने लश्कर के साथ फैजाबाद में जमा हुए तो अंग्रेजों ने उन्हें हथियार डाल देने का आदेश दिया। उन्होंने उसे नहीं माना तो उनकी गिरफ्तारी के आदेश दे दिये। अवध की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने से मनाकर दिया तो 19 फरवरी को एक कडे मुकाबले में गोरी फौज ने न सिर्फ उन्हें पकड़ लिया, बल्कि जंजीरों में बांधकर घुमाया। फिर मुकदमे का नाटक कर फांसी की सजा सुना दी। लेकिन आठ जून, 1857 को बगावत भड़की तो देसी फौज ने जेल पर हमला करके मौलवी को छुड़ा लिया। फिर अपना चीफ चुनकर उनकी आमद में तोपें दागीं। फिर तो मौलवी ने इस फौज की कमान संभाल ली और फैजाबाद को आजाद कराकर राजा मान सिंह को उसका शासक बनाया। यह भी उनके हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रयत्नों के ही तहत था। आगे वे फैजाबाद के मोर्चे तक ही सीमित नहीं रहे। अवध के अन्य हिस्सों व आगरा सूबे में घूमघूम कर क्रांति की ज्वाला जगाते रहे। कई बार बागियों को पीछे हटना पड़ा तो मौलवी ने उन्हें छापामार लड़ाइयों की रणनीति भी प्रदान की। जानकारों के अनुसार अंग्रेज आमने-सामने की लड़ाइयों से कहीं ज्यादा इन छापामार मुकाबलों से आतंकित हुए। 15 जनवरी, 1858 को गोली से घायल होने के बावजूद मौलवी का मनोबल नहीं टूटा और 21 मार्च, 1858 को लखनऊ के पतन के बाद भी उन्होंने शहर के केन्द्र में गोरी सेना से दो-दो हाथ किए।

बगावत पूरी तरह विफल हो गई तो भी मौलवी शाहजहांपुर को अपना केंद्र बनाकर अंग्रेजों की नाक में दम करते रहे। इससे चिढ़कर अंग्रेजों ने पहले उन्हें पकड़ने और मार देने की कई साजिशें रचीं, फिर उनका सिर लाने वाले को पचास हजार रुपये देनें का एलान कर दिया। पचास हजार रुपये इन्हीं रुपयों के लालच में शाहजहांपुर जिले की पुवायां रियासत के राजा जगन्नाथ सिंह के भाई बलदेव सिंह ने 15 जून, 1858 को तब धोखे से गोली चलाकर मौलवी की जान ले ली। कहते हैं कि शाहजहांपुर के कलेक्टर ने उसे मौलवी के सिर की मुंहमांगी कीमत दी। फिर उनके सिर को शाहजहांपुर कोतवाली के फाटक पर लटकवा दिया। मगर कुछ देशभक्त युवकों ने जान पर खेलकर उस सिर को वहां से उतारा और पास के लोधीपुर गांव के एक छोर पर पूरी श्रद्धा व सम्मान के साथ दफन कर दिया।


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