

शक और आरोप मकबूल ‘जंगली‘ पर था। उस पर हिजबुल से संबंधों का भी शक था और फौज की नजर भी थी। उन दिनों नेट मोबाईल आदि नहीं थे। साधारण फोन थे। झेलम नदी में जाल डालो तो खाली बोतलों में संदेश मिलते थे। ‘सेब की फसल अच्छी हुई है इस साल।’ फसल या सेब का मतलब कुछ भी हो सकता था। लड़की अगर पार गई तो यूं ही नहीं होगी? इतनी चर्चा है तो उधर की फौज को भी पता ही होगा। कुछ तो तालमेल रहा ही होगा। पार आना जाना अजूबी बात नहीं थी, रोजमर्रा की भी नहीं। फौजी पल्टनें नक्शों, मॉडलों, पैट्रोलिंग से वहां 2-3 साल रहती थी। रौब से हथियारों के साथ। छुट्टियों और वापसी की योजना बनाते हुए।
गांव वालों का वो घर था, पुश्त दर पुश्त। वो पहाड़, जंगल उनका आंगन। वो पीढ़ियों से वहीं पले बढ़े। पहाड़ और घाटी उनके खून में थी। हालात ने उन्हें अपने घर में घुसपैठिया बनाया। कबाईली, हूण, शक, कुषाण, तुर्क, मंगोल, मुगल उसी रास्ते आए। शताब्दियों से घाटी में लश्करों की कदम ताल ने लोगों को मजबूत चुप्पी सिखा दी थी, चालाकी भी। जिंदा रहने का हर कौशल। कई सदियों का इतिहास उनकी मर्जी से नहीं था। वर्तमान भी नहीं था। अब वर्तमान में थे, मुखबिर, चोर, फकीरा और मकबूल जंगली। इधर मुस्तफा मास्टर और उधर वो पार गई लड़की। फौज दोनों तरफ थी। फौज भी मर्जी से नहीं अपने फर्ज और मजबूरी से भी। घर परिवार से दूर, छुट्टियों को तरसती।
उम्र उस लडके की 20-21 साल के करीब रही होगी। फोटो में वो एके-56 राइफल के साथ था। गांव से गायब भी। कोई खास पढ़ा-लिखा नहीं था। अपराधिक रिकार्ड नहीं था पर घाटी में एलओसी सीमा पर हाथ में एके-56 थामना उग्रवादी कहलाने को काफी है। फिर एके-56 कस्बे के फोटो स्टूडियो तक आई कहां से? फोटो थी लड़का गायब। पिछले ही साल लड़की गायब हुई थी। फौजी हलकों में चर्चा स्थानीय लड़के-लडकियों के उग्रवादी संगठनों द्वारा रिक्रूट करने और बोर्डर पार आतंकवादी गतिविधियों में ट्रेनिंग की थी। फौजी माहौल संवेदनशील था। लड़के का बाप नहीं था, मां का रो रो कर बुरा हाल था। चुप्पी आदत में शुमार। चोर फकीरा, मकबूल जंगली दोनों रोजी, कुरान और मां-बाप की कसमें खा रहे थे। गांव वाले भी ‘कुछ नहीं पता जनाब’ की रट लगाए हुए थे।
भारत और पाकिस्तान दोनों ने आणविक विस्फोट कर लिए थे। हालात तनावपूर्ण थे। गोलाबारी में एक 60-65 साल के सिविलियन गांव वाले को पैर में गंभीर चोट आयी। जान के लाले थे। गोलाबारी में हमने वहां पहुंच कर इलाज देखा तो उसकी जान बची। इससे पहले माईन ब्लास्ट में एक गांव वाले का पैर उड़ा था। तब भी इलाज किया था। रोज दो चार सामान्य मरीज आ ही जाते थे। गांव वालों से थोड़ा तालमेल था। नर्सिंग असिस्टेंट से गांव वालों का थोड़ा ज्यादा मेल जोल हो गया था। दबा हुआ आदमी सधा हुआ खुद ही हो जाता है। उसे बहुत कुछ देखना पड़ता है। दबाव रास्ते भी बनाता है, तोड़ कर या धकेल कर। दरारें भी खोलता है। गांव बाहरी दबाव में एक हो जाता है, पर दरारें तो होती ही हैं। एक दरार खुली।
कुछ ही दिन में हमें गांव के स्कूल में कार्यक्रम का न्यौता मिला।
गोलाबारी में घायल हुए गांव के ही रशीद भट्ट को भी देखने गए। मास्टर मुस्तफा के परिवार से ही था। उसका पांव बच गया था। शुक्रगुजार था वो, गांव भी। उसके घर अखरोट का सूप या कहवा पीया। सब इत्तेफाकन था, पर इत्तेफाकन हो नहीं रहा था। बातचीत चल पड़ी। मसले स्कूल, सेहत से लेकर सियासत और जंग के। उस दिन बात हो रही थी, तहकीकात नहीं। डाक्टर वैसे तहकीकात ही करते हैं मर्ज की। मास्टर जी भी आज मास्टर जी ही थे। पेशी पर नहीं थे। यूं तो सालभर में उनसे कई मुलाकात हुई थी पेशी पर। उन्होंने मुलाकात आज ही की मगर, कम खोला पर मुंह खोला। फिर लड़की का बाप बोला मास्टर चुप हो गया। बाप कम बोला, पर काफी कुछ बोला। तजुर्बा जज्बात पर भारी। सध कर बोलना यहां आदत और तरबियत में हैं। खास कर हुक्मरानों से।
अब तक की हमारी तहकीकात और सवाल ही गलत थे।
फौज भी तरबियत और फर्ज से आगे नहीं देख पाती। यह फौजी पोस्ट नहीं, घर था शायद इसलिए सही सवाल निकल आया और बाजी पलट गई। शायद इस सवाल के बाद मोर्चे और बाजी रह ही नहीं गई। सवाल सीधा और स्वाभाविक सा था, ‘हम आपकी क्या मदद कर सकते हैं?’ गोलाबारी में जान जोखिम में डाल कर जान बचाने फौजी डाक्टर ने पूछा था इसलिए भी सीधे से सवाल में वजन बहुत था। फिर यह सवाल नहीं था, मानवीय पेशकश थी। सच उगल पड़ा गुत्थी सुलझ गयी।
आजादी के पहले से भट्ट परिवार की खासी जमीन जायदाद थी। उनके अखरोट के बडेÞ बाग एलओसी के पार बंटवारे में रह गये। बंटवारे की लकीर उन्होंने नहीं मुकद्दर, जंग और फौज ने तय की। लकीर गांव में नहीं दिल्ली इस्लामाबाद में तय हुई। इंसानी रिश्तों और जज्बातों को तय जंग और सियासत तब कर नहीं पाई। वो जानवरों, हवा पानी जैसे थे इधर से उधर तक। एक आध पीढ़ी यूं ही चले भी। भट्ट परिवार को बाग का पैसा मिलता रहा। पीढ़ी, नीयत, वक्त बदला तो समाजिकता से समाधान निकाला गया।
यह भट्ट परिवार की ही नहीं, बहुत से परिवारों की वहां हकीकत बनी। लड़की की शादी बचपन से तय थी। अब तो सिर्फ रूखसती हुई। बिछडेÞ रिश्तों और जायदाद से ताल्लुकात बनाए रखने की एक मजबूर कोशिश। एलओसी और हालात के बहुत से अनचाहे रंगों की यह जिंदगी। मकबूल जंगली इस काम में मदद करता है सो गांव में इज्जत बहुत है उसकी। ‘कम कहे में ज्यादा समझें,’ लड़की की मां की गुजारिश थी, एक अर्जी सी भी नत्थी थी साथ। सहयोग का एक अनकहा करार हुआ दोनों तरफ से। सब बातें कहने-सुनने की होती भी नहीं। चोर फकीरा की अखरोट के बड़े बाग पर नजर थी। सुनने में आया।
उग्रवादी दो तरह के थे घाटी में। हालात के और पेशेवर। पेशेवर सख्त जान थे और ज्यादातर घाटी से बाहर के। गजब लड़ाके थे कई तो। हथियारों की उम्दा सिखलाई भी थी। हालात वालों में कुछ नाराज वाले थे कुछ एक फैशन वाले भी। वो लड़का फैशन वाला था। उम्र का भी असर था। बंदूक हाथ आई तो फोटो स्टूडियो पहुंच गया। फौज के नए जवानों में भी यह शौक आम है। लड़का एक महीने में ही पकड़ आ गया, शौक पूरा कर या डरपोक निकम्मा साबित हो कर। जरा सी फौजी सख्ती हुई तो सब बक दिया। हथियार के अलावा उसके पास कुछ काम का नहीं था। मुखबिर चोर फकीरा का दूर का भांजा था सो फौज भी नरम रही। उसका डींगे मारना जारी रहा।
दर्रों, ऊंचे पहाडों, कंटीले तारों, गोली से बचकर पाकर जाना तो नासमझ, गरीब, मजबूरों और खतरों के खिलाड़ियों का तरीका है। आतंकवादियों के आका पथरीले पहाड़ों पर नहीं, उड़ कर सीधे मुलायम कालीनों पर पैर रखते हैं, शिष्टता से दिल्ली में। नेपाल के रास्ते तो हमेशा खुले थे।
साल गुजरा और पल्टन भी फील्ड कार्यकाल खत्म कर, परिवारों के साथ की उम्मीद में, पहाड़ों और घाटी से राम राम कर उतरने लगी। नई पल्टन आ गई थी। नई को पुरानी पल्टन इलाके और हालात से वाकफियत कराती है, हालांकि अक्ल सबको अपनी ही बेहतर लगती है। नई पल्टन को पुरानी कमतर ही लगती है।
सुनने में आया मास्टर जी की लड़की घर आई है। शायद मां-बाप से मिलने। फौजी उठक बैठक फिर शुरू हो गर्इं, मास्टर जी की फौजी पेशी भी। गर्मा गर्मी भी। आजकल चोर फकीरा नई पल्टन का खास है और ‘जंगली’ मकबूल फिर निशाने पर। आजकल चोर फकीरा का अपने किसी दूर के भांजे का निकाह मास्टर की लड़की से करवाने में मदद का प्रस्ताव नए अफसर के पास विचाराधीन है। बस मकबूल जंगली रोड़ा है। चोर फकीरा तो पुराना खिदमतगार है ही। घाटी से उग्रवाद खत्म करना मुख्य मकसद है। जंग और खेल जारी है। घिसाई पिसाई भी। इंसाफ के लिए भी जंग होती है। जंग में इंसाफ नहीं होता सिर्फ जंग होती है।
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