Tuesday, July 8, 2025
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पहाड़ और मुंबई के बीच पुल हैं ये कहानियां

RAVIWANI


SUDHANSHU GUPTमाइकल एंजेलो की एक प्रसिद्ध कृति है ‘डेविड’। पूरी दुनिया में इसे पुरुष सौंदर्य का प्रतीक माना जाता है। ठीक उसी तरह जैसे ‘वीनस’ को हम स्त्री सौंदर्य का प्रतीक मानते हैं। इतालवी कलाकार एंजेलो ने इसे 1501-1504 के बीच बनाया था। जब किसी ने माइकल एंजेलो से पूछा कि ‘डेविड’ इतनी सुंदर, इतनी परिपरक्व और इतनी प्रौढ़ रचना कैसे बनी? माइकल एंजेलो ने सहजता से कहा, मैंने एक चट्टान का टुकड़ा लिया और उसमें से वो हिस्सा निकाल दिया जो डेविड नहीं था। एक चट्टान को तराशते चले जाना, डेविड को जन्म देता है। अब जरा डेविड के इस उदाहरण को कहानी पर लागू करके देखते हैं। मान लीजिए कहानी का मूल विचार डेविड है। अब आप इसमें से वह सब निकालते चले जाइए जो डेविड (कहानी के मूल विचार से मेल नहीं खाता) नहीं है। तब आप एक अच्छी कहानी कह पाएंगे। लेकिन डेविड 16वीं शताब्दी के शुरू में बनाई गई थी। तब से लेकर कहानी का स्वरूप बहुत बदल चुका है, कहानी का शिल्प, कहन, भाषा और मूल विचार भी कहाँ से कहाँ आ गया है।

इसलिए इस विचार को भी हर कहानी पर लागू नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना जरूर समझ में आता है कि कहानी में क्या नहीं होना चाहिए। कहानी में अतिरिक्त डिटेलिंग, अनावश्यक वर्णन, भाषा का अतिरेक, नाटकीयता और मार्मिकता नहीं होनी चाहिए। साथ ही सहजता, सरलता और जीवंत परिवेश भी जरूरी है। और अगर अनुभव उधार के न हों तो कहानी के लिए बहुत अच्छी बात है।

संयोग से हाल ही में हरि मृदुल का कहानी संग्रह ‘हंगल साहब, जरा हंस दीजिए’ (आधार प्रकाशन) पढ़ी। संग्रह की 20 कहानियों ने साफ कर दिया कि मृदुल के पास अपना शिल्प है, भाषा है, विचार दृष्टि है और सबसे महत्वपूर्ण उनके पास अनुभव हैं, जो उधार नहीं लिए गए हैं। हरि मृदुल के अनुभवों की जमीन एक तरफ पहाड़ हैं तो दूसरी तरफ महानगर मुंबई। मुंबई की दुनिया देखते हुए लेखक वहाँ की चमकीली दुनिया के पीछे अंधेरे देखते हैं, गुम होती हंसी देखते हैं, लता मंगेशकर की चोटी देखते हैं, बिल्ली, घोंघा और बाघ देखते हैं।

इस तरह वह मुंबई में जीने वाले लोगों (प्रसिद्धि पा चुके और संघर्षरत) के जीवन की विसंगतियों को कहानी में दर्ज करते हैं। संग्रह की शीर्षक कहानी ‘हंगल साहब, जरा हंस दीजिए’ में वह एक सफल अशक्त हो चुके चरित्र अभिनेता की तकलीफ दिखाते हैं और साथ ही यह भी दिखाते हैं कि बाजार किस तरह उनकी तकलीफ को भी बेचना जानता है। लेकिन बाजार का तकलीफों से कोई लेना देना नहीं है। उसे एक प्रोडक्ट के रूप में उनके चेहरे पर मुस्कराहट चाहिए। ‘कपिल शर्मा की हंसी’ में लेखक एक कॉमेडियन की खो गई हंसी को उसकी ही बेटी की मुस्कान में खोजते हैं।

‘पृथ्वी में शशि’ कहानी में वह एक ऐसे अभिनेता को चित्रित करते हैं, जो अपने जमाने में वह बेहद हैंडसम था, लेकिन अंतिम समय में वह व्हीलचेयर पर आ गया। जब उसकी एक फैन महिला उसे पहचानने से इंकार कर देती तो उसे सदमा-सा लगता है। यह कहानी रील और रियल लाइफ को चित्रित करती है। मुंबई में संघर्षरत कलाकारों की स्थिति गधे की तरह हो जाती है। हरि मृदुल ने इस ‘ढेंचू’ कहानी में संजीदगी से चित्रित किया है।

लेकिन पहाड़ हरि मृदुल के भीतर मुंबई में भी बचे हुए हैं। यही कारण है कि वह ‘बाघ’ जैसी कहानी लिखते हैं। कहानी लोकजीवन से शुरू होती है और बड़े अर्थपूर्ण तरीके से मुंबई जैसे महानगर में पहुंचती है-वह भी वाया सपने। लेकिन हरि मृदुल के लिए यहां बाघ एक प्रतीक है, बाजार का, बड़े-बड़े मॉल्स का, चमचमाते शोरूम्स का। वह कहानी के अंत में यह भी लिखते हैं कि नजरे साफ कर देखोगे तो पाओगे कि सब जगह है बाघ-मुंबई, दिल्ली, लखनऊ, भोपाल, पटना, जयपुर, देहरादून, शिमला, चंडीगढ़, बैंगलुरु, हैदराबाद, कोलकाता…।

यह संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी है। हरि मृदुल की कहानियों में बिल्ली और घोंघा भी सहजता से आते हैं। यहीं अनायास दामोदर खाडसे की कहानी ‘तेंदुआ’ याद आ गई, जो दिखाती है कि इंसान रूपी तेंदुआ मुंबई पहुंच गया है। यह आश्चर्य की बात है कि मुंबई में कुत्तों के मुकाबले बिल्लियां अधिक दिखाई देती हैं। इसका कारण जानने की कोशिश की लेकिन नहीं मिल पाया। हरि अपनी कहानी ‘बिल्ली’ में एक स्त्री की पीड़ा को बिल्ली के माध्यम से देखते हैं। वहीं उनकी ‘घोंघा’ कहानी उस विडंबना की ओर इशारा करती है, जो इंसान को घोंघे में बदल देती है और घर में घुसते हुए भी उसे लगता है कि वह अपने खोल में घुस रहा है।

जब आप मुंबई में रहते हैं तो वहां हुई बड़ी घटना को अनदेखा नहीं कर पाते। 26 जुलाई 2005 के दिन हुए जल प्लावन में हजारों की जान गई और अरबों की संपत्ति नष्ट हो गई। हरि मृदुल उस जल प्लावन के गवाह थे। वह बड़ी घटनाओं में से कहानी निकालना जानते हैं। ‘पटरी पर गाड़ी’ ऐसी ही कहानी है। हरि मृदुल ने इस कहानी में एक बच्चे के डूब जाने की त्रासदी को सबकी त्रासदी में बदला है। यही बात कहानी को खूबसूरत बनाती है। हरि मृदुल के पास मुंबई का बड़ा अनुभव फलक है। वह पत्रकारिता की दुनिया से भी जुड़े हैं।

लेकिन उनकी कहानियों में कहीं भी सूचनाएं महज सूचना की तरह नहीं आतीं। और सूचनाओं के भरोसे वह कहानी के कहानीत्व से कोई समझौता नहीं करते। और भी अनेक कहानियों (कुत्ते दिन, ई कौन नगरिया, आलू) में मुंबई, वहां की जीवन और जीवन से निकलती कहानियां हैं। लेकिन पहाड़ से महानगरों की ओर कूच करने वाले हर व्यक्ति के भीतर पहाड़ और उसकी स्मृतियां जीवित रहती हैं।

हरि मृदुल भी इसका अपवाद नहीं हैं। संग्रह में कई कहानियां पहाड़ से पैदा हुई हैं। कहीं ये किरदारों के रूप में सामने आती हैं तो कहीं स्मृतियों के रूप में। पीतल के गिलास, पानी में पानी, मैं पिता को देख रहा हूं, आमा ऐसी ही कहानियां हैं। ‘अर्जन्या’ एकदम अलग मिजाज की कहानी है। इसमें जवान बछड़ों को बधिया कर बैल बनाने वाला अर्जन्या है। अर्जन्या इंदिरा गांधी के जमाने में खुद भी जबरन बधिया कर दिया गया था। हालांकि बाद में वह एक बेटी का पिता बना। नसबंदी के असफल हो जाने के आक्रोश में वह अपनी बेटी का नाम इंदिरा रख देता है। यह एक विलक्ष्ण कहानी है।
संग्रह की सभी कहानियों का आकार छोटा है।

जाहिर है हरि मृदुल की कहानियों में अनावश्यक विस्तार और वर्णन नहीं है। वह कहानियों को मूल विचार से दूर नहीं ले जाते। उनकी कहानियों के नायक बेहद आम लोग हैं। वह उन्हें महान या बड़ा बनाने का कोई नकलीप्रयास नहीं करते। यही बात उन्हें समकालीन कथाकारों से अलग करती है। कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि वे किसी दूसरे के अनुभव को कहानी में शामिल कर रहे हैं। वे उधार के अनुभवों पर नहीं लिखते। वे पहाड़ से जुड़े हैं तो उनकी कहानियों में पहाड़ का जीवन सहजता से आता है। वह पहाड़ के जीवन को महानगर का जीवन नहीं बनाते बल्कि पहाड़ और मुंबई के बीच पुल बनाते हैं।


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