Friday, March 29, 2024
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जब बच्चा करे बातें अपने आप से

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Balvani


वैसे खुद से बातें करने वाले बच्चे अपनी कुछ समस्याओं को खुद सुलझा लेते हैं। विपरीत परिस्थितियों से कैसे निपटा जाए, इसकी कुछ क्षमता उनमें आ जाती है। वैसे ऐसे बच्चे स्वभाव से शमीर्ले होते हैं। स्वयं से बातें करना या कल्पना लोक में रहने की प्रवृत्ति उन बच्चों में अधिक देखी जाती है जिन बच्चों पर माता-पिता पूरा समय नहीं दे पाते या आपस में झगड़ते रहते हैं।

दो साल का होते होते बच्चा बहुत कुछ बोलने लगता है और बहुत कुछ सीखता समझता है। अब तक वह अपने आस पास के वातावरण में ढल चुका होता है। वह बहुत सी बातों को अपना लेता है जो वह देखता है और सुनता है। वह माता-पिता के निदेर्शों को समझता है और वह वही बातें अपने गुड्डे-गुड्डियों, अपने टेडी बीयर्स के साथ करता है। उन्हें निर्देश देता है, निर्देशों के न मानने पर उन पर गुस्सा निकालता है, उन्हें डांटता है, उन्हें हल्के हाथों से मारता है, उन्हें कपड़े पहनाता है, जूते पहनाता है क्योंकि इन सब क्रि याओं को वह अपनी मम्मी या पापा द्वारा करते देखता है। बच्चों की ये क्रि याएं सामान्य होती हैं।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार 3 से 7 वर्ष तक बच्चा स्वयं से बातें करे तो माता-पिता को घबराना नहीं चाहिए, उसे सामान्य समझना चाहिए क्योंकि इस आयु तक बच्चे स्वयं से खेलते हैं, काल्पनिक चरित्र के साथ बातें करते हैं क्योंकि उन पर घर के वातावरण और स्कूल के वातावरण का पूरा प्रभाव होता है। मनोचिकित्सक से पूछने पर पता चला कि सारे बच्चे ऐसा नहीं करते। कुछ बच्चे ही ऐसा करते हैं। जो बच्चे जल्दी बोलना सीखते हैं और उनके माता-पिता व्यस्त रहते हों तो वे स्वयं से ही बातें करते हैं।

वैसे खुद से बातें करने वाले बच्चे अपनी कुछ समस्याओं को खुद सुलझा लेते हैं। विपरीत परिस्थितियों से कैसे निपटा जाए, इसकी कुछ क्षमता उनमें आ जाती है। वैसे ऐसे बच्चे स्वभाव से शमीर्ले होते हैं।स्वयं से बातें करना या कल्पना लोक में रहने की प्रवृत्ति उन बच्चों में अधिक देखी जाती है जिन बच्चों पर माता-पिता पूरा समय नहीं दे पाते या आपस में झगड़ते रहते हैं।

एक मनोचिकित्सक के अनुसार अधिकतर ऐसे बच्चों का विकास ठीक होता है। वे कल्पना शक्ति के सहारे अपनी दबी भावनाओं को उजागर करते हैं। बच्चों का स्वयं से बातें करना सामान्य तब बन जाता है जब बच्चा सात साल की उम्र के बाद भी दोहराता रहता है और कल्पना लोक में डूबा रहता है।

ऐसी स्थिति में बच्चों को अधिक प्यार दें, उनके साथ अधिक समय बिताएं, उनके साथ कुछ इस प्रकार के खेल खेलें जिसमें वो आनंद महसूस करें। यदि उन्हें किसी बात को समझाना हो तो सकारात्मक समझाएं। नकारात्मक सोच उनमें न भरें। उन्हें डराएं नहीं, उनमें उत्साह भरें। बच्चों को अधिक डराने से बच्चों के विकास में रुकावट आ सकती है। सात वर्ष बाद भी बच्चा अधिक समय कल्पनालोक में रहे तो उसे मनोचिकित्सक को दिखाएं। ऐसे बच्चों पर ध्यान दें कि वह इस स्थिति में दिन में कितने समय तक खोया रहता है। इसकी जानकारी चिकित्सक को दें ताकि उसका विकास ठीक से हो सके।

बच्चों का खुद से बात करना कितना सही

अगर हम अपने बच्चों को नोटिस करते हैं, तो हमें एहसास होता है कि वह तब ज्यादा बोलते हैं जब वह अकेले होते हैं। मनोवैज्ञानिक, माता-पिता और शिक्षक इस व्यवहार को हमेशा नेगेटिव लेते हैं। उनको लगता है कि बच्चों का खुद से बात करना किसी डिस्ट्रेक्शन या दिमागी बीमारी का कारण हैं। दूसरी ओर बच्चों का खुद से बात करना कुछ विशेषज्ञों के लिए पॉजिटिव साइन है। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि इस स्थिति में बच्चों के दिमाग का विकास ज्यादा अच्छे से होता है।

क्यों जरूरी है बच्चों का खुद से बात करना

कई शोधकर्ताओं ने कहा है कि इंटेलिजेंस और बच्चों का खुद से बात करने के बीच में गहरा संबंध है। यह बताता है बच्चा जितना बुद्धिमान होता है, वह उतना ही अधिक अपने आप से बात करता है। हालांकि समय के साथ उनके बोलने की क्वालिटी और अधिक बेहतर हो जाती है।

जो बच्चे खुद से बात करते हैं उनके पास खुद की कल्पनाओं को बताने का मौका होता है। बच्चों का खुद से बात करना उन्हें एक काल्पनिक दोस्त के साथ बात करने और यहां तक कि उन वस्तुओं को देखने और समझने का मौका होता है, जो वास्तव में मौजूद नहीं हैं। बच्चों का खुद से बात करना सेल्फ-कंट्रोल और सोच के विकास के लिए बेहतर विकल्प माना जाता है।

नीतू गुप्ता


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