योग भारत का प्राचीन विज्ञान है। दर्शन भी है। इसकी स्वीकृति अंतर्राष्ट्रीय है। दो दिन बाद 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस है। इस महापर्व की तैयारियां उल्लासधर्मा हंै। भारत के सभी क्षेत्रों राज्यों में योग दिवस के आयोजन होने जा रहे हैं। भारतीय राष्ट्र जीवन में योग यत्र तत्र सर्वत्र है। बिना प्रयास किसी का मिलना जुड़ना संयोग है। अलग हो जाना वियोग है। सहायक बना लेने का ज्ञान उपयोग हैं। आरोपित करना अभियोग है। वस्तुओं का उत्पादन करना उद्योग है। शक्ति का गलत प्रयोग दुरूपयोग है। शक्ति का प्रतिस्पर्धी प्रयोग प्रतियोग है। प्रतियोगिता शब्द इसी से बना है।
ज्ञान को साधना का उपकरण बनाना ज्ञान योग है। भक्ति मार्ग भक्ति योग है। कर्म प्रधानता कर्म योग है। संसार को माया और ब्रह्म को वास्तविक जान सन्यास योग है। ज्योतिष में गृह स्थितियों की अनुकूलता संयोग है। गणित में अंकों का जोड़ भी योग है। योग जोड़ने का विज्ञान है। आत्मबोध का दर्शन है। यह अंधविश्वास नहीं है।
योग अस्तित्व से शक्ति अर्जित करने का विज्ञान है। इसके बीज सूत्र ऋग्वेद में है। उपनिषदों में है। गीता में विस्तृत हंै। बुद्ध पंथ में तमाम यौगिक क्रियाओं का उल्लेख है। मार्शल ने हड़प्पा सभ्यता पर ‘मोहनजोदड़ो एंड दि इंडस सिविलाइजेशन’ पुस्तक लिखी थी। इस ग्रंथ में शिव को आर्य देवताओं से भिन्न देवता बताया है। किताब में योग के बारे में लिखा है, शैव मत के समान योग का उद्भव भी आर्यों से पहले की आबादी में हुआ था। काव्यों के युग के पहले उसकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका आर्यों के धर्म में नहीं थी। मार्शल का विवेचन सही नहीं है। वे सिंधु सभ्यता को वैदिक सभ्यता से प्राचीन मानते थे। उनकी मानें तो योग सिंधु सभ्यता के समय विकसित हुआ। वैदिक पूर्वजों ने इसे बहुत बाद में जाना। यह तथ्य संगत नहीं है। वैदिक पूर्वज योग से परिचित थे।
योग चित्त चंचलता की समाप्ति का विज्ञान है। योग के द्वारा बुद्धि का जागरण वैदिक काल में भी था। यह जागरण सामान्य नहीं है। ऋग्वेद (5.44.14) में कहते हैं, ‘‘जो जागे हुए हैं। ऋचाएं उनकी कामना करती हैं।’’ मन की चंचलता मनुष्य का स्वभाव है। स्थिरप्रज्ञता योग की उपलब्धि है। ऋग्वेद में इन्द्र से कहते हैं, ‘‘आपका मन हमारी ओर हो। (8.45.6) वैदिक देव इन्द्र योग के विज्ञ थे।’’ इन्द्र की प्रशंसा में कहते हैं, ‘‘आपने जन्म लेते ही अपना मन स्थिर किया।’’ सृजन का आनंद भी योग से मिलता है। ऋग्वेद (9.68.5) में कहते हैं, ‘‘आनंद प्रशिक्षित मन से आता है। मार्शल की आधी बात ठीक है कि हड़प्पावासी योग से परिचित थे।’’ मार्शल की यह बात गलत है कि ऋग्वैदिककाल में योग साधना नहीं थी। मार्शल की यह बात भी गलत थी कि आर्य जन योग से अपरिचित थे। ऋग्वेद में हिरण्यगर्भ का उल्लेख है। वे योग के प्रथम प्रवक्ता माने जाते हैं। योग को व्यवस्थित रूप में विज्ञान बनाने का काम ईसा की दूसरी सदी पूर्व पतंजलि ने किया था। माना जाता है कि वे पुष्यमित्र शुंग के परामर्शदाता थे। पतंजलि ने पाणिनि के व्याकरण पर महाभाष्य लिखा था। उन्होंने ही ‘योगसूत्र‘ नामक महान ग्रंथ लिखा है।
भारतीय दर्शन में दुख का मूल कारण अविद्या है। सांसारिक भोग सुख नहीं देते। पतंजलि ने चित्तवृत्तियों को सुख दुख का कारण माना है। सिग्मंड फ्रायड प्रसिद्ध मनसविद् थे। उन्होंने मन का मजेदार विश्लेषण किया है। उन्होंने तीन तरह के मन बताए हैं। पहला क्षिप्त मन। दूसरा विक्षिप्त मन और तीसरा मूढ़ मन। लेकिन पतंजलि ने मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध सहित चित्त की पांच अवस्थाएं बतार्इं। इन चित्त वृत्तियों की समाप्ति को योग का लक्ष्य बताया – योगश्च चित्त वृत्ति निरोध: (योगसूत्र 2) बताया। मनुष्य का चित्त द्रव्य या पदार्थ नहीं है। पदार्थ होता तो विज्ञान की पकड़ में आता। चित्त मनुष्य शरीर का अति सूक्ष्मतम अदृश्य भाग है। मन और शरीर मिले हुए हैं। मन खराब हो तो शरीर कष्ट पाता है। शरीर में चोट हो तो मन दुखी होता है। अपमान का अनुभव मन पर होता है। ताप शरीर पर होता है। बाइबिल में भी योग के संकेत हैं। बाइबिल (मैथ्यू 5.3) में कहते हैं, ‘‘वे धन्य हैं जो मन के दीन हैं। स्वर्ग का राज्य उनका है।’’ एकाग्र मन आनंद का स्रोत है।
मन महत्वपूर्ण है। यजुर्वेद के शिव संकल्प सूत्रों में मन को शिवत्व से भरने की स्तुति है। इसमें 6 मंत्र हैं। कहते हैं, ‘‘हमारा मन नदी पर्वत आकाश तक जाता है। हम उसे वापिस बुलाते हैं।’’ सभी 6 मंत्रों के अंत में ‘तन्मे मन: शिव संकल्पम अस्तु’ जुड़ा हुआ है। चित्तवृत्तियों की समाप्ति से एकाग्रता आती है। एकाग्रता की प्राप्ति योगाभ्यास से होती है। मन के साथ शरीर भी स्वयं में स्थिर होता है। स्वयं में स्थिर होना स्वस्थ होना है। पतंजलि के सूत्र संक्षिप्त हैं। कहीं कहीं एक ही शब्द का वाक्य है। वे आसन, प्राणायाम और ध्यान के माध्यम से आत्मबोध कराते हैं। आसन और प्राणायाम सरल शब्द हंै। ध्यान और समाधि कठिन है। ध्यान एकाग्रता है। पतंजलि के अनुसार ध्यान का केन्द्र केवल उपकरण है।
योगसूत्र में प्रीतिकर विषय पर ध्यान के विकल्प हैं। योगसूत्र (समाधिपाद 39) में कहते हैं, ‘‘यथाभिमत्ध्याना द्वा – जिसकी जैसी इच्छा हो उस केन्द्र पर ध्यान करें।’’ फिर कहते हैं अथवा ईश्वर पर प्राण-ध्यान लगाएं – ईश्वर प्रणिधाना द्वा (वही 23) पतंजलि के सूत्रों में ईश्वर पर ध्यान एक विकल्प है। पतंजलि का ईश्वर सामान्य ईश्वर नहीं है।’’ वे ईश्वर की परिभाषा भी बताते हैं, ‘‘क्लेश, कर्म, कर्मफल और वासना से असम्बद्ध चेतना विशेष ईश्वर है (वही 24)।’’ आगे कहते हैं, ‘‘समय के पार होने के कारण वह गुरुओं का गुरु है।’’ योग सिद्धि में समय नहीं होता। इस परिभाषा के अनुसार कोई भी योग के माध्यम से ईश्वर जैसा हो सकता है।
योग आनंद का सागर है। योग सिद्ध स्वस्थ व्यक्ति हिंसक नहीं हो सकता। उसके चित्त से सृजन फूटते हैं। योग सिद्धि के लगातार अभ्यास जरूरी है। उपलब्धि प्राप्ति के प्रति अनासक्ति से योग के लाभ मिलते हैं। पतंजलि ने स्वयं कहा है कि ‘‘जिनके प्रयास मृदु या मध्यम होते हैं। उन्हें योग के लाभ उसी मात्रा व समय में मिलते हैं। जिनके प्रयास तीव्र होते हैं उन्हें योग का फल तत्काल मिलता है।’’ पतंजलि ने योग सिद्ध बुद्धि के लिए ऋतम्भरा शब्द का प्रयोग किया है-ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा। ऋतं शब्द पहली बार ऋग्वेद में आया है।
इसका अर्थ अस्तित्व का संविधान है। ऋतम्भरा साधारण बुद्धि नहीं है। एक बुद्धि मनुष्य की होती है। एक बुद्धि समूचे ब्रह्माण्ड की होती है। ऋतम्भरा पूरे ब्रह्माण्ड की बुद्धि है। फिर समाधि की चर्चा है। और अंतत: कैवल्य की। योग दर्शन सत्य के द्वार खोलता है। योग से तमाम बीमारियों के उपचार भी होते हैं। लेकिन ऐसे उपचार योग के प्राथमिक चरण में ही पूरे हो जाते हैं। असली बात है कैवल्य या निर्बीज समाधि। तब योगी संसार में रहते, चलते, उठते, बैठते सभी अवस्थाओं में निस्पृह और निष्काम रहता है। योग विज्ञान भारतीय दर्शन का प्रतिष्ठित अंग है।
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