दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी (आप) की हालिया हार पर कई विश्लेषण सामने आए हैं। इनमें से अधिकतर विश्लेषण एकतरफा हैं और केजरीवाल को चुका हुआ और अप्रासंगिक मान लिया गया है। लेकिन राजनीति, जैसा कि अक्सर कहा जाता है, संभावनाओं का खेल है। इसलिए, इस घटना का एक नए नजरिए से विश्लेषण करना जरूरी है। यह समझना होगा कि केजरीवाल की राजनीति की खासियत क्या रही, उनके उदय के समय की जरूरत क्या थी, और सत्ता में आने के बाद वे किन खामियों का शिकार हुए। अरविंद केजरीवाल भारतीय राजनीति में एक ऐसे आंदोलन की उपज हैं, जो अपनी शुरूआत से ही वैचारिक संकट में रहा है। 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन से उभरकर टीम अन्ना ने जिस तरह से एक राजनीतिक दल का गठन किया, वह भारतीय राजनीति में एक नई जमीन तैयार करने की ख्वाहिश रखता था। इस राजनीति की मुख्य खासियत यह थी कि आप के कार्यकर्ता और नेता के बीच अंतर कम था और दोनों ही जनता की समस्याओं को लेकर सीधे संवाद करते थे। बिजली-पानी की समस्या हो, भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या शिक्षा और स्वास्थ्य में सुधार की बात
—आप ने इन बुनियादी मुद्दों को केंद्र में रखकर राजनीति की।
राजनीति का यह मॉडल ‘सस्ती और सरल शासन व्यवस्था’ पर आधारित था। वे पारंपरिक राजनीतिक दलों की जटिलताओं और भ्रांतियों से अलग नजर आते थे। उनका अंदाज जमीनी था, और वे अपने आप को जनता का नेता नहीं, बल्कि जनता का सेवक मानते थे। ‘आप’ की शुरूआती सफलता का कारण भी यही था कि पार्टी ने आम आदमी के मुद्दों को प्राथमिकता दी और दिल्ली के मतदाताओं को एक भरोसेमंद विकल्प दिया।
2010 के दशक की शुरुआत में देश भ्रष्टाचार और राजनीतिक ठहराव से जूझ रहा था। जनता पारंपरिक पार्टियों—कांग्रेस और बीजेपी—से निराश थी। यह वह दौर था, जब जनता को एक नई उम्मीद चाहिए थी। आम आदमी पार्टी ने इसी जनभावना को पहचाना और अपनी राजनीति को उसके अनुरूप ढाला। उनका नारा ‘झाड़ू चलाओ’ केवल प्रतीकात्मक नहीं था; यह पुराने सिस्टम को बदलने की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता था। दिल्ली में बिजली-पानी की सब्सिडी, मोहल्ला क्लीनिक, और सरकारी स्कूलों में सुधार ने जनता को यह विश्वास दिलाया कि आप एक ‘एक्शन-ओरिएंटेड’ पार्टी है। हालांकि, सत्ता में आने के बाद आम आदमी पार्टी की राजनीति में कई खामियां उभरकर सामने आईं। सबसे पहली खामी यह रही कि पार्टी का कोई दीर्घकालिक और स्पष्ट विजन नहीं था। यह मोटे तौर पर अरस्तू के क्लासिकल अराजकतावाद से प्रेरित रही, जिसमें समस्याओं का समाधान तत्काल ढूंढने पर जोर दिया जाता है, लेकिन दीर्घकालिक रणनीति का अभाव होता है।
आप की राजनीति स्थानीय मुद्दों और तात्कालिक समाधानों पर आधारित रही। लेकिन जैसे-जैसे पार्टी का विस्तार हुआ, इसकी रणनीतिक सीमाएं भी उजागर होने लगीं। राष्ट्रीय राजनीति में पार्टी का प्रदर्शन कमजोर रहा, और अन्य राज्यों में इसे वैसी सफलता नहीं मिल पाई जैसी दिल्ली में मिली थी। इसके अलावा, सत्ता के साथ ‘अहंकार’ और ‘ठसक’ का प्रवेश भी हुआ। केजरीवाल का शुरूआती ‘आम आदमी’ वाला व्यक्तित्व धीरे-धीरे एक ऐसे नेता में बदलने लगा, जो आलोचना को सहन नहीं कर पाता। पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर हुई, और कई प्रमुख नेता, जैसे योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण पार्टी छोड़ गए। बाद में यह एक परिपाटी बन गई कि जो केजरीवाल से असहमत है, उसका आप में कोई स्थान नहीं है। असहमति के साथ राजनीति का साहस न कर पाने के कारण जो केजरीवाल नरेंद्र मोदी को तानाशाह कहते थे, वो खुद उसी तानाशाही का सस्ता संस्करण बन गए। आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी खामी इसका वैचारिक आधार का कमजोर होना है। पार्टी ने खुद को न तो वामपंथी कहा, न दक्षिणपंथी। इसका मुख्य उद्देश्य सत्ता तक पहुंचना और जनता की समस्याओं का समाधान करना था। हालांकि, किसी भी राजनीतिक दल के लिए दीर्घकालिक सफलता के लिए एक स्पष्ट वैचारिक ढांचा जरूरी होता है।
आप का यह वैचारिक शून्य उसकी रणनीतिक विफलताओं का कारण बना। पार्टी ने कई बार अवसरवादी राजनीति की, जो उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करती है। उदाहरण के लिए, विभिन्न राज्यों में अलग-अलग चुनावी रणनीतियां अपनाना और स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप झुकाव दिखाना इसे एक ‘सैद्धांतिक रूप से कमजोर’ दल के रूप में स्थापित करता है। हालिया हार के बावजूद, यह कहना जल्दबाजी होगी कि केजरीवाल और आप अब अप्रासंगिक हो गए हैं। राजनीति संभावनाओं का खेल है, और नेताओं को ‘चुका हुआ’ मान लेना कई बार गलत साबित हुआ है। राहुल गांधी इसका एक बड़ा उदाहरण हैं। बीते 2 दशक में 90 से अधिक चुनाव हारने के बावजूद, राहुल गांधी आज भी विपक्ष का एक प्रमुख और सबसे बड़ा चेहरा हैं।
केजरीवाल की प्रासंगिकता इस बात पर निर्भर करेगी कि वे इस हार से क्या सीखते हैं। क्या वे जनता और कार्यकर्ताओं से दोबारा जुड़ने की कोशिश करेंगे या सत्ता में आने के बाद जो ठसक उनके व्यवहार में आई थी, उसे जारी रखेंगे? यह भी देखना होगा कि वे राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पार्टी की भूमिका को कैसे परिभाषित करते हैं। अगर केजरीवाल और आप को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखनी है, तो उन्हें कुछ कदम उठाने होंगे। इसमें पहला है झ्रस्पष्ट वैचारिक आधार। पार्टी को एक स्पष्ट और दीर्घकालिक विजन पर काम करना होगा। दूसरा संगठनात्मक मजबूती, पार्टी को जमीनी स्तर पर अपने संगठन को मजबूत करना होगा। जनता से संवाद कर केजरीवाल को अपने शुरूआती ‘आम आदमी’ वाले व्यक्तित्व की ओर लौटना होगा और जनता से सीधे जुड़ाव कायम करना होगा। आलोचना स्वीकार करने का माद्दा भी लाना होगा और पार्टी को भीतर और बाहर से आने वाली आलोचनाओं को सकारात्मक रूप से लेना सीखना होगा। आखिर में, राष्ट्रीय स्तर पर नई रणनीति के तहत आप को केवल स्थानीय मुद्दों तक सीमित रहने की अपनी जिद छोड़नी होगी।
और अंत में
अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के लिए यह हार निश्चित रूप से एक झटका है, लेकिन यह उनकी राजनीतिक यात्रा का अंत नहीं है। भारतीय राजनीति में अवसर कभी समाप्त नहीं होते। केजरीवाल की राजनीति में अभी भी संभावनाएं हैं, बशर्ते वे अपनी खामियों से सबक लें और एक दीर्घकालिक रणनीति तैयार करें। जनता की नब्ज को समझने और अपनी खोई हुई साख को दोबारा हासिल करने के लिए उन्हें जमीन पर लौटने की जरूरत है। राजनीति में हार और जीत के बीच की रेखा बहुत पतली होती है। केजरीवाल को अगर अपनी प्रासंगिकता बनाए रखनी है, तो उन्हें अपनी राजनीति को नए सिरे से परिभाषित करना होगा। जनता की जरूरतें बदल रही हैं, और अगर वे इन जरूरतों के अनुरूप खुद को ढाल सके, तो उनकी राजनीति को नए आयाम मिल सकते हैं।