अठारहवीं लोकसभा के परिणामों से भाजपा की सीटों के घटने का ट्रेंड अब विधानसभाओं के लिए हुए उपचुनावों में भी जारी रहा, जहां कुल 13 सीटों में से भाजपा और एनडीए मात्र 2 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाया। इससे पूर्व भाजपा लोकसभा चुनावों में भी पूर्व की तुलना में 63 सीटें गंवा बैठी थी। इसी का एक दूसरा पहलू यह कहा जा सकता है कि विपक्षी इंडिया गठबंधन धीमे-धीमे भाजपा की कीमत पर आगे बढ़ता जा रहा है। अभी आगे बिहार, महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और इन हालात में अब भाजपा के व्यूहकारों को वास्तविक रूप से चिंतन करने की आवश्यकता आ चुकी है। 2014 से ही भाजपा में संगठन का कार्य मात्र दो लोगों एवं उनके विश्वासपात्र गैर राजनैतिक लोगों के बीच सिमटा हुआ था, जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों की भी भूमिका रही है। औपचारिक रूप से भले ही भाजपा में एक राष्ट्रीय अध्यक्ष, राष्ट्रीय कार्यकारिणी तथा संसदीय बोर्ड रहा है किंतु उन सबका कार्य भी केवल नरेंद्र मोदी तथा अमित शाह द्वारा लिए गए निर्णयों पर मोहर लगाना भर रह गया है। ऐसे में जब तक मतदाताओं के समक्ष नरेंद्र मोदी का चेहरा कार्य कर रहा था, तब तक सबकुछ ठीक था और सफलता भी मिल रही थी, किंतु एक बार जब यह आभामंडल कुछ फीका पड़ा तो भाजपा को संगठन, कार्यकर्ताओं तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका का महत्व समझना ही पड़ेगा। भाजपा अब सोशल मीडिया पर ही केवल सक्रिय रहने वाले उन सब समर्थकों पर निर्भर नहीं रह सकती जो केवल मोबाइल और कमरे में बैठकर प्रधानमंत्री का यशोगान करते आए हैं और मतदाताओं से उनका कोई जमीनी सम्पर्क नहीं रह गया है।
भाजपा की मजबूरी या कमजोरी यह भी रही है कि उसके पास क्षेत्रीय दलों जैसा कोई सामाजिक आधार नहीं है और वह संकेतों एवं भावनात्मक मुद्दों जिनमें हिंदुत्व एवं राष्ट्रवाद प्रमुख हैं के आधार पर ही चुनावों में वोट लेती रही है। ये मुद्दे अब विपक्ष द्वारा केंद्र में लाए जा चुके बेरोजगारी, महंगाई, किसान, अग्निवीर और संविधान जैसे मारक मुद्दों के आगे निस्तेज हो चुके हैं। अभी के लोकसभा चुनावों तथा विधानसभा उपचुनावों में इसके साफ संकेत मिल चुके हैं। दलों को तोड़ कर उन्हें कमजोर करने की अमित शाह की नीति भी महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, हिमाचल में विपरीत पड़ गई है। राज्यों में मुख्यमंत्री के तौर पर कमजोर क्षत्रपों को बैठाने से भी कोई संगठनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक लाभ भाजपा को नहीं मिला है। राजस्थान, हरियाणा इसकी मिसाल हैं। दलों के प्रमुख नेताओं के पीछे ईडी, सीबीआई लगा कर उन्हें गिरफ्तार करने को जनता ने अच्छा नहीं माना है।
अब प्रश्न यह आता है कि वो क्या उपाय हैं जिनके करने से भाजपा पुन: मजबूत बने? तो इसके लिए भाजपा को सर्वप्रथम अपने संगठन एवं केबिनेट में आंतरिक विमर्श सिस्टम को पुन: प्रारंभ करना होगा जिसे मोदी शाह की जोड़ी ने पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया था। इससे यह फायदा होगा कि निचले स्तर तक की रिपोर्ट्स तथा जनभावना की समझ साझा की जा सकेंगी और तदनुसार संगठन एवं सरकार को स्फूर्ति दी जा सकेगी। इसी क्रम में राष्ट्रीय कार्यकारिणी तथा संसदीय बोर्ड में जी हजूरी वाले लोगों की जगह अपने अपने राज्यों में वास्तविक रूप से प्रभावशाली लोगों को जगह दी जाए और इन ईकाइयों की नियमित बैठकें भी की जाती रहें। भाजपा को कुछ मेहनत करके अपनी कृषक-मध्यमवर्ग विरोधी एवं कॉरपोरेट समर्थक छवि को दूर करने की जरूरत है। अब वह अपने समर्थन के लिए इन कॉरपोरेट घरानों द्वारा संचालित मीडिया और प्रिंट हाउसेज पर ज्यादा निर्भर नहीं रह पाएगी क्योंकि सोशल मीडिया में अनेक लोकप्रिय यूट्यूब न्यूज चैनल आ गए हैं, जो गाहे बगाहे भाजपा एवं उसके बड़े नेताओं के बारे में वास्तविक/अवास्तविक जानकारियां/ टिप्पणियां देकर भाजपा आइटी सैल की मेहनत पर पानी फेर रहे हैं और बड़ी भारी संख्या में इन चैनलों को दर्शक/श्रोता भी मिल रहे हैं।
भाजपा को धर्म के मामले में भी थोड़ा संतुलन बनाना होगा। यदि तीस करोड़ मुस्लिम, सिख, ईसाई, नवबौद्ध किसी राष्ट्रीय दल के प्रति नकारात्मक सोच रखते हैं तो वह दल अपनी सफलता के ध्वज को लेकर बहुत ज्यादा दूरी तक नहीं जा सकता। उसे हिंदू धर्म में भी व्यक्तिगत संतों और धार्मिक संगठनों को छोड़कर चारों शंकराचार्यों तथा वैष्णव अखाड़ों को महत्व देना पड़ेगा जो हिंदू धर्म की मर्यादा बचाए हुए हैं। यदि भाजपा निकट भविष्य में अल्पसंख्यकों के विश्वास को हासिल करने के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाती है तो उसे चुनावी चुनौतियों में भारी कठिनाईयां झेलनी पड़ सकती हैं। भाजपा को यह सब करते समय अपने कोर वोटर समूह सवर्ण वर्ग को भी नहीं भूलना चाहिए जो उसके लिए एक मुश्त 20 से 25 प्रतिशत वोट बैंक रहा है। महंगाई, आयकर, महंगी उच्च शिक्षा तथा नौकरी उस वर्ग की चिंताओं के महत्वपूर्ण बिंदु हैं। इनका समाधान बहुत जरूरी है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नरेंद्र मोदी तथा अमित शाह ने संबंध बिगाड़े हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है। संघ के लोग आज भी जमीनी कार्यकर्ता के रूप में एक बड़ी शक्ति हैं, जो भाजपा की चुनावी यात्रा की प्राण रेखा रही है। दूसरे दलों से लाए गए लोग और नरेंद्र मोदी के सोशल मीडिया समर्थक यह कार्य नहीं कर सकते। भाजपा थिंक टैंक को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से तालमेल बैठा कर ही अपनी नीतियों को पुनर्निर्धारित करना चाहिए।