भारत की लाखों पीड़ित जनता सूखे गले से जिस चीज के लिए बार-बार गुहार लगा रही है, वह है रोटी। वे हमसे रोटी मांगाते हैं और हम उन्हें पत्थर पकड़ा देते हैं। भूख से मरती जनता को धर्म का उपदेश देना, उसका अपमान है। भूखे को तत्व-मीमांसा की सीख देना उसका अपमान है।
सत्ता संरक्षण में मचाए जा रहे ‘हिंदुत्व’ के देशव्यापी कोलाहल के बीच इन चार पंक्तियों के कारण किसी को भी ‘धर्मद्रोही’ घोषित किया जा सकता है। ‘सनातन को अपमानित करने’ और ‘हिंदू धर्म का दुश्मन’ बताते हुए कानूनी कार्रवाई भी हो सकती है। लेकिन यह उद्धरण योद्धा संन्यासी स्वामी विवेकानंद का है, जिन्हें आधुनिक विश्व को हिंदू धर्म के शुभ पक्षों से परिचित कराने का श्रेय दिया जाता है। शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में 20 सितंबर को 1893 को अपना चौथा भाषण देते हुए स्वामी विवेकानंद ने जिÞंदगी की तकलीफों से ध्यान भटकाने के लिए धर्म की आड़ लेने वाले को कड़ी फटकार लगाते हुए जो कहा था वह ‘धर्म नहीं है भारत की सबसे बड़ी जरूरत’ शीर्षक से उपलब्ध है। उन्नीसवीं सदी के उस अंतिम दशक में न आस्था की कमी थी और न धर्म का जोर ही कम था लेकिन किसी ने विवेकानंद पर इस भाषण के लिए कोई लांछन नहीं लगाया। उल्टा भारत लौटने पर ‘महान हिंदू संत’ के रूप में उनको तरह-तरह से सम्मानित किया गया था।
बहरहाल, लगभग 131 साल बाद ‘हिंदू राष्ट्र’ का दम भरने वाले ऐसी कोई गुंजाइश छोड़ने को तैयार नहीं हैं। धर्म के परिसर से विवेक को निष्कासित करके उसे घृणा और हिंसा का पर्याय बना दिया गया है। बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और सांसद संबित पात्रा का कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे पर किया गया ताजा हमला इसी का सबूत है। उन्होंने मध्यप्रदेश के महू में ‘जय बापू, जय भीम, जय संविधान’ रैली में दिए गए कांग्रेस अध्यक्ष के भाषण को सनातन के खिलाफ बताते हुए माफी मांगने की मांग की है जबकि उसमें एक तरह से स्वामी विवेकानंद के भाषण को ही दोहराया गया था।
डॉ.आंबेडकर की जन्मस्थली महू में 27 जनवरी को आयोजित रैली में मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, अरे भाई गंगा में डुबकी लगाने से गरीबी दूर होती है क्या? क्या आपको पेट में खाना मिलता है? मैं किसी की आस्था को कोई ठेस नहीं पहुंचाना चाहता। अगर किसी को दु:ख हुआ तो मैं माफी चाहता हूं। लेकिन आप बताइए कि जब बच्चा भूखा मर रहा है, बच्चा स्कूल में नहीं जा रहा है, मजदूरों को मजदूरी नहीं मिल रही है…जब ये है, तो ये लोग जाकर हजारों रुपये खर्च करके कम्पटीशन में डुबकियां मार रहें हैं। कम्पटीशन में एक डुबकी मारता है, फिर दूसरा…और जब तक टीवी पर अच्छा नहीं आता, तब तक डुबकी मारते रहते हैं।…ऐसे लोगों से देश की भलाई होने वाली नहीं है। हमारी आस्था भगवान में है। कर सकते हैं। हर एक को आजादी है। आप रोज पूजा करिए। घर में हर आदमी और हर महिला पूजा कर के बाहर निकलती है। हमें कोई एतराज नहीं है। हमको एतराज है- गरीबों का जो शोषण हो रहा है, धर्म के नाम पर, उसके खिलाफ हमको लड़ना है।
साफ है कि मल्लिकार्जुन खड़गे धार्मिक लोगों आस्था पर चोट नहीं कर रहे हैं जो परलोक सुधारने या मोक्ष के लिए कुम्भ में डुबकी लगाने जा रहे हैं, उनका निशाना वे सत्ताधारी हैं जो देश में फैली भीषण गरीबी और बेकारी पर पर्दा डालने के लिए महाकुम्भ के ‘इवेंट’ का इस्तेमाल कर रहे हैं और अपनी तमाम असफलताओं पर उठ रहे सवालों को ‘आस्था की डुबकी’ के पीआर में ‘डुबो’ देना चाहते हैं। उनके लिए गंगा में आस्था की डुबकी लगाने से ज्यादा टीवी के पर्दे पर ‘स्नान करते दिखना’ है। स्वामी विवेकानंद ने इसे ही जनता का अपमान बताया था। तब किसी ने ये नहीं कहा था कि विवेकानंद दूसरे धर्म के बारे में सवाल क्यों नहीं उठाते? पर संबित पात्रा ने चैलेंज किया है कि ‘क्या खड़गे जी कह सकते हैं कि हज में जाने से क्या हो जाएगा? सनातन के खिलाफ उनके बोल शर्मनाक हैं। इस बयान के लिए कांग्रेस पार्टी को माफी मांगनी चाहिए।’
संबित पात्रा शायद भूल गए हैं कि भारत के महान संत-महात्माओं ने ऐसे तमाम सवाल उठाए हैं। संत रैदास कहते हैं कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ उनके लिए ईमानदारी से अपना काम करने वालों के लिए गंगा स्नान की जरूरत नहीं है। वहीं संत कबीर चेताते हैं, न्हाये धोये क्या हुवा,मन का मैल न जाये/मीन (मछली) सदा जल में रहे, धोये बास न जाये। कबीरदास का एक प्रसिद्ध निर्गुण है-चली कुलबोरिनी गंगा नहाय! इसमें वे कहते हैं, गंगा नहाइन जमुना नहाइन, नौ मन मैलहि लिहिन चढ़ाय/ पांच पचीस के धक्का खाइन, घरहु की पूंजी आई गँवाय/ कहैं कबीर हेत करु गुरु से, नहीं तोर मुक्ती जाइ नसाय/
जाहिर है, धर्म के मार्ग में विवेक को छोड़ना अनिवार्य नहीं है। ये सभी संत-महात्मा ईश्वर पर विश्वास करते थे लेकिन इसके लिए पूजा-पाठ या गंगास्नान करने की जगह मन का मैल दूर करने, सदाचरण और सद्भावना की सीख देते थे। क्या संबित पात्रा या बीजेपी नेता उन्हें भी चुनौती देते कि ‘पहले किसी और धर्म पर सवाल उठाओ, यह हिंदू धर्म का अपमान है!’ कुम्भ में गंगा स्नान करके आस्थावान ‘मोक्ष’ यानी आवागमन के चक्र से मुक्ति चाहते हैं। यानी इस आयोजन का रिश्ता लोक से नहीं परलोक से है। जबकि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या मुख्यमंत्री की जिÞम्मेदारी ‘लोक’ की व्यवस्था करना है। लोक के संकटों को दूर करना उनका ‘धर्म’ है। इसीलिए इस व्यवस्था को ‘लोकतंत्र’ कहा गया है न कि ‘पर-लोकतंत्र।’ राजनेता भी अपनी आस्था के तहत गंगा स्नान करें, इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है, लेकिन अगर लोकतंत्र की कमान संभालने वाले नेता लोक-व्यवस्था की बदहाली के सवालों के जवाब में ‘परलोक की पुड़िया’ बांटेंगे तो इसे धर्म नहीं अधर्म ही कहा जाएगा। विवेकानंद की नजर में यह जनता का अपमान है। देश के सबसे गरीब राज्यों में शुमार उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार जिस तरह से महाकुम्भ की ब्रांडिंग से अपना चेहरा चमका रही है, वह नाकामी पर पर्दा डालने की कोशिश ही है।
संबित पात्रा सरीखे बीजेपी के तमाम नेता जो ‘हिंदू बनाम अन्य के खेल’ से अपनी सत्ता मजबूत करना चाहते हैं उन्हें विश्व धर्म संसद में दिया गया विवेकानंद का अंतिम भाषण जरूर पढ़ना चाहिए। 27 सितंबर 1893 को सम्मेलन के समापन सत्र को संबोधित करते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था, पवित्रता, शुद्धता और उदारता, दुनिया के किसी एक धर्म की मिल्कियत नहीं हैं। सभी धर्मों ने सर्वश्रेष्ठ गुणों वाले महान पुरुषों और महिलाओं को जन्म दिया है। यह बात साबित होने के बाद भी अगर कोई व्यक्ति सिर्फ अपने धर्म के आगे बढ़ने और बाकी धर्मों के नष्ट होने का सपना देखता है, तो मुझे उस पर दिल की गहराइयों से तरस आता है। ऐसे लोगों को मैं बताना चाहूंगा कि तमाम विरोधों के बावजूद बहुत जल्द हर धर्म के बैनर पर लिखा होगा ‘युद्ध नहीं, सहयोग!’, ‘विनाश नहीं, मेल-मिलाप!’, ‘आपसी कलह नहीं, शांति और सद्भावना!