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यह साल कथावाचक बाबाओं के जरिए आगामी लोकसभा की पटकथा लिखने जा रहा है। हाल ही में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार का सामना करने वाली भारतीय जनता पार्टी पिछले तीन माह में दो राज्यों से अपनी सत्ता गंवा चुकी है। इसलिए बीजेपी अब मध्यप्रदेश को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहती है, क्योंकि मध्यप्रदेश में भी ‘द केरला स्टोरी’ की तर्ज पर धर्म-परिवर्तन का मामला तेजी से गरमाने लगा है। क्योंकि मध्यप्रदेश में अब बीजेपी को कर्नाटक की हार सताने लगी है। यानी बीजेपी के हाथ से अगर ये राज्य चला जाता है, तो बीजेपी के लिए बुरे दिन शुरू हो सकते है। कर्नाटक चुनाव में ‘द केरला स्टोरी’ और बजरंगबली जैसे मुद्दे खूब गरमाए, लेकिन बीजेपी की सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया।
इसलिए भारतीय मीडिया को कांग्रेस की यह जीत हजम नही हो पा रही है, जो कल तक कांग्रेस को कोसते थे अब वे कांग्रेस की किस मुंह से बड़ाई करें यह सवाल बड़ा हो चला है। भारतीय मीडिया धार्मिक अनुष्ठानों की कवरेज को बढ़ा चढ़ाकर दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। इसलिए यह मीडिया फिर से धर्ममय होने लगा है, क्योंकि उनके सामने फिर से तीन राज्यों का चुनाव सबसे महत्वपूर्ण है।
बागेश्वर धाम बाबा धीरेंद्र शास्त्री की हाल ही में पांच दिवसीय हनुमंत कथा पटना में सपन्न हुई। जिसमें लाखों की भारी भीड़ का जमावड़ा देखा गया। भीड़ से पटे इस पंडाल परिसर में खूब बजरंगबली के जयकारे लगे, लेकिन इस कथा में भारतीय मीडिया भी बाबा के दरबार में अपनी हाजिरी लगाता हुआ दिखाई दिया।
साथ ही सभी टीवी न्यूज चैनल्स बाबा का सजीव प्रसारण (लाइव) दिखाकर अपनी टीआरपी बटोरने में लगे रहे कि बाबा कब, कहां और किस समय होटल से निकल रहे हैं। बाबा दरबार में कैसे और किस रूप में कलाकारी दिखाकर भक्तों की अर्जी को पर्ची के जरिए कैसे उनकी किस्मत बदल रहे है, यही सब यह खेल मीडिया दिखा रहा है।
इसलिए इस मीडिया की कवरेज से किसान और आम आदमी हमेशा गायब रहा है, जो अभी तक भी गायब है। साधु संतों के चरणों में नेताओं के लेटने की परंपरा कोई नई तो नहीं है। इससे पूर्व भी बहुत से नेता ऐसे थे जो बाबाओं के फॉलोअर्स रहे। देश में ऐसे नेताओं की एक बड़ी लंबी फेहरिस्त है, जो समय-समय पर बाबाओं से आशीर्वाद लेने उनके आश्रम जाया करते थे।
ताकि चुनावी माहौल उनके पक्ष में होता दिखे। इससे पहले गुरु राम रहीम, आसाराम बापू, संत रामपाल महाराज, कृपालु महाराज, स्वामी परमानंद, और सत्य सार्इं बाबा जैसे नेताओं के यहां दिन-रात दरबार लगता था, लेकिन आज ये सब नेता कहां है यह किसी से छिपा नहीं है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे बड़े सूबों में विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर माह में होने है।
इसी को लेकर सभी पार्टियां अब अलर्ट मोड़ पर आ चुकी हैं। कर्नाटक चुनाव हारने के बाद बीजेपी इन राज्यों में फिर से धर्म का कार्ड खेलना चाहती है, ताकि जनता धर्म के प्रति नरम रुख अपनाकर हिन्दुत्ववादी ताकतों को मजबूती दे सके और आने वाले चुनाव में उन्हें भरपूर लाभ मिल सके।
धर्म और फायदे के राजनीति की यह बिसात जनता की समझ से अभी कोसो दूर है। कर्नाटक चुनाव से एक संकेत तो साफ तौर पर निकलकर सामने आया है कि कर्नाटक की जनता ने झूठ का जल्दी पदार्फाश कर दिया। बीजेपी चुनावी प्रचार के दौरान जहां हिंदू-मुस्लिम डर और ‘द केरला स्टोरी’ जैसी झूठे प्रोपेगेंडा खड़ी करने में लगी थी, वहीं कर्नाटक की जनता ने बीजेपी का यह झूठ पकड़कर राज्य से उनको उखाड़ फेंकने का काम किया है।
लेकिन बाबाओं के मायावी दांव पेच, धर्म और राजनीति को लेकर देश में अब एक बड़ा खेल खेला जा रहा है ताकि राजनीति के आसरे इन बाबाओं को संरक्षण मिल सके। ऐसे बाबा जो खुले मंच से हिंदू राष्ट्र की बात करते है, जो देश की राजनीति को धर्म का अखाडा बनाने में लगे है, ऐसे बाबाओं के खिलाफ सख्त रुख अपनाया जाना चाहिए।
पिछले कुछ वर्षों में ऐसे बाबा मीडिया के लिए टीआरपी का ‘पीपल मीटर’ साबित होते जा रहे हैं। जो दिन-रात ऐसे बाबाओं को लाइव दिखाकर अपनी टीआरपी बटोरने में लगे है, उनमें सबसे लोकप्रिय चेहरे बन चुके है धीरेंद्र शास्त्री। इनके आलावा पंडोखर सरकार, कंप्यूटर बाबा, मिर्ची बाबा और पंडित प्रदीप मिश्रा जैसे कई साधु संतों का सियासत से करीबी रिश्ता रहा है।
आजकल के कथावाचक बाबा भीड़ खींचने में माहिर हो चुके है, उनको लगता है कि कथा सुनने आए श्रद्धालुओं की जितनी ज्यादा भीड़ होगी उस पार्टी को उतना ही ज्यादा समर्थन होगा। राजनीति श्रद्धालुओं की भीड़ को वोट बैंक में बदलकर बाबाओं के सहारे सत्ता का लाभ लेना चाहती हैं, क्योंकि उनको लगता है कि केवल धर्म ही उनको सत्ता में बने रहने के लिए एक बड़ी भूमिका अदा कर सकता है।
आस्था में विश्वास रखने वालो की एक लंबी कतार है, लेकिन जब नेता आस्था का चोला ओढ़कर बाबाओं की शरण में जाने लगे तो समझ जाइएगा कि श्रद्धालुओं की भीड़ उनके लिए वोट बैंक का काम करेगी, लेकिन चमत्कार का दावा करने वाले ये बाबा भीड़ को आकर्षित करने में काफी हद तक सफल भी हो रहे है।
यही कारण है कि नेता इस भीड़ को अपना वोट बैंक समझ बैठे हैं, लेकिन लोकतंत्र में संविधान सर्वोपरि है। लोकतंत्र में कोई साधु-संत या कथावाचक बाबा चुनाव नहीं जिता सकता। चुनाव तो आखिरकार जनता को ही जिताना होता है। इसलिए संविधान से मिला वोट का अधिकार अनुच्छेद 326 जनता को यह ताकत देता है कि वह जिसे चाहे सत्ता की कुर्सी पर बैठा सकते है या फिर यूज नीचे उतार भी सकते हैं।
छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर बाबाओं के दरबार लगने लगे है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कथावाचक धीरेंद्र शास्त्री के दरबार में श्रद्धालुओं की भीड़ पंडाल में ऐसी थी कि मानो जैसे किसी नेता की रैली होने जा रही हो, धीरेंद्र शास्त्री ने छत्तीसगढ़ में धर्म परिवर्तन जैसे मुद्दे को खूब हवा दी।
वह हमेशा हिंदू राष्ट्र की बात करते है, इसलिए उनके दरबार में सबसे ज्यादा बीजेपी के नेता ही जाते है, जिनके चरणों में बड़े-बड़े नेता झुकने को हरदम तैयार रहते हैं। इसी तरह भिलाई, छत्तीसगढ़ के अप्रैल महीने पं. प्रदीप मिश्रा द्वारा शिव महापुराण कथा का एक बड़ा आयोजन हुआ, जिसमें लगभग तीन लाख श्रद्धालुओं ने हिस्सा लिया।
एक सप्ताह तक चली इस कथा में श्रद्धालुओं पर खूब शिव की कृपया बरसी, लेकिन कथा जैसे ही समाप्त हुई कथावाचक बाबा और उनके श्रद्धालु उस जगह को कूड़े के ढेर में तब्दील करके चले गए। भिलाई नगर निगम के सफाई कर्मचारियों द्वार कई दिनों तक उस जगह की सफाई करने में समय में लग गया।
चुनावी सीजन में कथावाचक बाबाओं की सक्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जहां देखो वहीं कथावाचक बाबाओं से कथा सुनने की एक परंपरा सी चल पड़ी है, तो क्या इन कथावाचक बाबाओं के आसरे आगामी लोकसभा चुनाव के लिए बिसात बिछने जा रही है और भारत की सियासी पार्टियां इसको लेकर किस तरह की रणनीति अपना रहा है यह तो अब आने वाला समय ही बताएगा।
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