अपने हाथ से खुद की बदहाली करने का एक और उदाहरण हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका है। अभी कुछ साल पहले के सम्पन्न श्रीलंका में अचानक क्या हुआ? वहां के नीति-नियंताओं ने आखिर ऐसी क्या गलतियां कीं? पड़ोसी देश श्रीलंका भयानक आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है जिसकी वजह से उसके पास रोजमर्रा की जरूरी चीजें तक आयात करने के लिए पैसे नहीं हैं। नतीजे में इन चीजों की अत्यधिक कमी हो गई है जिससे आम नागरिकों को बहुत परेशानी हो रही है। इस आर्थिक संकट की जड़ें बहुत पुरानी हैं।
श्रीलंका में रोजमर्रा के उपयोग की आम चीजें बहुत कम बनती हैं और ये सब आयातित होती हैं। कुल आयात का 13 प्रतिशत खनिज एवं खनिज तेल और उसके उत्पाद हैं, 8.1 प्रतिशत बिजली और इलेक्ट्रॉनिक सामान है, 8 प्रतिशत मशीनें हैं, 9.6 प्रतिशत अलग-अलग प्रकार के कपड़े हैं, 5.6 प्रतिशत लोहे और इस्पात तथा उससे बने सामान हैं, 3.2 प्रतिशत दवाइयां हैं, 3 प्रतिशत खाद्य-पदार्थ हैं और 1.7 प्रतिशत रासायनिक उर्वरक और बाकी अन्य समान हैं।
श्रीलंका का कुल आयात 224 करोड़ अमरीकी डॉलर का है, जबकि इसकी तुलना में निर्यात केवल 110 करोड़ डॉलर का है। मुख्यत: सिले हुए कपड़े बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सस्ते दामों में (52 प्रतिशत) निर्यात किए जाते हैं। दूसरी बड़ी निर्यात की वस्तु है, चाय (17 प्रतिशत)।
इसके अलावा 6 करोड़ डॉलर पर्यटन से, 27 करोड़ डॉलर विदेशों में काम करने गए लोगों द्वारा घर भेजे गए पैसों से और 18 करोड़ डॉलर विदेशी निवेश से मिलता है। इस प्रकार विदेशी व्यापार में भारी घाटा है, करीब 60 करोड़ डॉलर। इस घाटे को पूरा करने एवं समुद्र-तटीय बंदरगाहों को बनाने के लिए श्रीलंका ने गत एक दशक में भारी विदेशी कर्ज लिया है जो वर्ष 2019 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) यानि राष्ट्र की कुल आमदनी का 42 प्रतिशत हो गया है।
इस बदहाली के करेले पर कोरोना महामारी के नीम की वजह से पर्यटकों का आना बंद हो गया और विदेश गए अप्रवासी मजदूर भी वापस लौट आए।
इसलिए विदेशी व्यापार का घाटा बहुत अधिक होकर विदेशी कर्ज वर्तमान में सकल घरेलू उत्पाद का 104 प्रतिशत हो गया है। फलस्वरूप कर्ज के भुगतान की राशि इस वर्ष 700 करोड़ डॉलर हो गई है, जबकि केंद्रीय बैंक के पास केवल 170 करोड़ डॉलर ही शेष हैं। इसलिए फिलहाल श्रीलंका सरकार ने कर्ज की अदायगी बंद कर दी है और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) से मदद के लिए गुहार लगाई है।
श्रीलंका की कुछ घरेलू नीतियां भी विगत दो वर्षों में वित्तीय स्थिति को जोखिम में डाल रही हैं। किसी भी देश में विकास को बढ़ावा देने के लिए सरकार को पर्याप्त कर वसूलना होता है। इस मामले में उत्तर यूरोप के देश, जैसे-डेनमार्क, स्वीडन आदि सबसे अव्वल हैं, जहां कर वसूली सकल घरेलू उत्पाद के 40 प्रतिशत से अधिक है, पर श्रीलंका में यह केवल 11 प्रतिशत था। सन 2019 में इसे और कम कर दिया गया और यह अनुपात 7 प्रतिशत ही रह गया, जिससे कि सरकार के लिए अपना खर्च चलाना और कर्जों की अदायगी करना बहुत कठिन हो गया।
हालांकि रासायनिक उर्वरकों का आयात, समूचे आयात का एक बहुत छोटा हिस्सा है, लेकिन किसी ने सलाह दी कि अगर रासायनिक खाद और कीटनाशक का आयात बंद करेंगे तो विदेशी मुद्रा की बचत होगी और जैविक खेती के माध्यम से अर्थ-व्यवस्था को वापस पटरी पर लाया जा सकेगा। लोग यह भूल गए कि अगर रासायनिक खाद इस्तेमाल नहीं करेंगे तो उसके बदले जैविक खाद का इस्तेमाल करना होगा। इसी तरह अगर कीटनाशक इस्तेमाल नहीं करना है तो एक या दो फसलों की मोनोकल्चर यानि एकल फसल की बजाय बहुत सारी फसलों की विविध खेती करनी होगी।
जैविक खाद आनन-फानन में नहीं बनता है, क्योंकि इसको बनाने के लिए समय और मेहनत की जरूरत होती है। खेती भी एकाएक एक फसली से बहु-फसली में तब्दील नहीं होती, इसके लिए भी समय आवश्यक है। जैविक खाद के बिना एक फसली खेती जैविक ही नहीं कहलाती है। इस अव्यावहारिक कदम की वजह से श्रीलंका में खाद्य उत्पादन कम हो गया और साथ ही चाय का उत्पादन भी कम हो गया। इससे एक तरफ खाद्यान्न की कमी हो गई और दूसरी तरफ चाय के निर्यात से होने वाली विदेशी मुद्रा की आमदनी भी कम हो गई और संकट और गहरा गया।
श्रीलंका को इस संकट से उबरने के लिए फिलहाल तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से कुछ मदद मिलेगी, पर उस पर शर्त यह जरूर लगाई जाएगी कि वह करों की दरें बढ़ाये और अपनी उधार करके घी पीने की आदत को त्यागे!! सवाल यह है कि क्या श्रीलंका संकट जल्दी दूर हो सकेगा? जो हालात हैं, उनसे तो ऐसा लग रहा है कि संकट लंबे वक्त तक चलेगा।