महाभारत का युद्ध अपने चरम पर था। एक से एक बड़े योद्धा एक दूसरे से जान की बाजी लगाकर लड़ रहे थे। कहना मुश्किल था कि कौन पक्ष जीतेगा और कौन हारेगा। गुरु द्रोणाचार्य और उनके शिष्य अर्जुन आमने-सामने थे। अर्जुन अपनी पूरी क्षमता और कौशल के साथ अपने गुरु पर हमले कर रहे थे। द्रोणाचार्य लड़खड़ा रहे थे। उनका सारा कौशल और ज्ञान अपने ही शिष्य के आगे व्यर्थ साबित हो रहा था। अर्जुन पूरे जोश के साथ आगे बढ़ते जा रहे थे। यह दृश्य सबको हैरत में डाल रहा था। अर्जुन का इस तरह आगे बढ़ना पांडवों में नई स्फूर्ति का संचार कर रहा था। दूसरी और कौरवों के हौसले पस्त हो रहे थे। तभी कौरवों में से एक ने दूसरे से प्रश्न किया, यह क्या हो रहा है? अर्जुन ने जिस व्यक्ति से सब कुछ सीखा, उसे वह मात दे रहा है। शस्त्रों के ज्ञाता गुरु की हालत लगातार खराब होती जा रही है। यह कैसे संभव है? इस आश्चर्य का क्या रहस्य है कि गुरु हारता और शिष्य जीतता जा रहा है? यह बात द्रोणाचार्य ने सुन ली। उन्होंने उसकी दुविधा दूर करते हुए कहा, मुझे लंबा समय राजाश्रय की सुख-सुविधाएं भोगते हुए हो गया, जबकि अर्जुन निरंतर कठिनाइयों से जूझता रहा है। सुविधा संपन्न व्यक्ति अपना सामर्थ्य गंवा बैठता है और संघर्षशील व्यक्ति की क्षमता निरंतर बढ़ती जाती है। अनेक सिद्ध महापुरुषों का जीवन इस बात का साक्षी है कि सफलता का कमल कठिनाइयों के कीचड़ के बीच खिलता है। तभी तक जीवन धारदार रहता है, जब तक वह प्रतिरोधों और चुनौतियों की सान पर चढ़ा रहता है। कठिनाइयां समाप्त होने पर व्यक्ति आलस्य का शिकार हो जाता है। छोटे से भी विरोध और व्यवधान का सामना करने में वह स्वयं को नितांत असमर्थ पाता है। वह जीवन में कभी विजय नहीं प्राप्त कर सकता। द्रोणाचार्य की यह बात कौरवों को अच्छी नहीं लगी, पर अंतत: यह सत्य सिद्ध हुई।