Wednesday, April 30, 2025
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दयानंद का उत्तर

 

Amritvani 20


आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने अपने समय में एक बड़ी सामाजिक-धार्मिक क्रांति की थी। वेदों के अलावा और भी अनेक विषयों का उन्होंने गहन अध्ययन किया था। उनकी प्रतिभा का लोहा सभी मानते थे पर अनेक विद्वान मन ही मन उनसे ईर्ष्या भी करते थे। वे उन्हें नीचा दिखने का मौका ढूंढते रहते थे। कई लोगों ने तो उनसे सीधे शास्त्रार्थ किया तो कई लोग बातों में कटाक्ष करते रहते थे। पर दयानंद इससे विचलित नहीं होते थे।

वे अपनी प्रखर बौद्धिकता और विनोदप्रियता से उन्हें मात दे देते थे। उनके विरोधी बड़े उत्साह और जोश से उनके पास आते, लेकिन उनसे पराजित होकर लौट जाते थे। एक दिन दक्षिण से जिज्ञासुओं का दल उनसे अपनी शंका का समाधान कराने आया। दयानंद ने उन सबका यथोचित स्वागत किया और प्रेमपूर्वक बैठने को कहा।

उनमें से वेंकटगिरी नामक एक अतिथि बोला, जिस आसन पर आप विराजते हैं, मैं तो वहीं बैठूंगा। दयानंद ने उसके लिए अपना आसन छोड़ दिया। तभी आंगन में एक पेड़ पर बैठा कौवा कांव-कांव करने लगा। दयानंद बोले, देख लीजिए, वह कौवा कितने ऊंचे स्थान पर बैठा है।

पर क्या केवल उच्च स्थान पर बैठने से कौवा भी विद्वान माना जाएगा? तभी एक अन्य सज्जन ने उन्हें घेरने के लिए प्रश्न किया, बताइए, आप विद्वान हैं या एक सामान्य पुरुष? दयानंद उसका आशय समझ गए। उन्होंने सोचा कि अगर वे स्वयं को विद्वान कहेंगे तो उसमें आत्मप्रशंसा झलकेगी और यदि स्वयं को सामान्य बताएंगे तो प्रश्न उठेगा कि उन्हें दूसरों को उपदेश देने का अधिकार कैसे मिला?

उन्होंने कहा, भाइयो, मैं वेद, व्याकरण, धर्म, दर्शन का विद्वान हूं पर व्यापार, चिकित्साशास्त्र आदि में एकदम शून्य। दयानंद का यह उत्तर सुनकर उन लोगों की बोलती बंद हो गई। उन्होंने उनसे क्षमा मांगी। वे दयानंद के प्रशंसक बन गए।


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