साल के दस महीने लाख मिन्नतों के बाद जब आसमान से जीवनदाई बरसात का आशीष मिलता है तो भारत का बड़ा हिस्सा इससे उपजी त्रासदी ‘बाढ़’ को कोसता दिखता है। समझना होगा कि बाढ़ प्राकृतिक आपदा नहीं, बल्कि प्रकृति के पुनरुत्थान की प्रक्रिया है। दूसरा जहां बाढ़ हानि पहुंचा रही है, वहां अधिकांश स्थानों पर इसके मूल में मानवीय त्रुटियां ही हैं। नैसर्गिक बाढ़ विनाशकारी नहीं होती और उसके कुछ सकारात्मक पहलू भी होते हैं। बाढ़ महज एक प्राकृतिक आपदा ही नहीं है, बल्कि यह देश के गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक संकट का कारक बन गया है। हमारे पास बाढ़ से निबटने को महज राहत कार्य या यदा-कदा कुछ बांध या जलाशय निर्माण का विकल्प है, जबकि बाढ़ के विकराल होने के पीछे नदियों का उथला होना, जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गरमी, रेत की खुदाई व शहरी प्लास्टिक व खुदाई मलवे का नदी में बढ़ना, जमीन का कटाव जैसे कई कारण दिनों-दिन गंभीर होते जा रहे हैं।
आंकड़ों को पलटें तो यह सच है कि देश में हर साल बाढ़ का दायर और उससे होने वाली हानि का दायरा बढ़ता जा रहा है, लेकिन यह भी सच है कि उसी अनुपात में बरसात बीतते ही देश के बड़े हिस्से में पानी की कमी का भी विस्तार है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के मुताबिक भारत में तीन करोड़ 42 लाख हेक्टेयर जमीन बाढ़ प्रभावित है। जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि भारत देश में पिछले छह दशकों के दौरान बाढ़ के कारण लगभग 4.7 लाख करोड़ का नुकसान हुआ और 1.07 लाख लोगों की मौत हुर्इं, आठ करोड़ से अधिक मकान नष्ट हुए और 25.6 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में 109202 करोड़ रुपए मूल्य की फसलों को नुकसान पहुंचा है। इस अवधि में बाढ़ के कारण देश में 202474 करोड़ रुपए मूल्य की सड़क, पुल जैसी सार्वजनिक संपत्ति पानी में मिल गई। मंत्रालय बताता है कि बाढ़ से प्रति वर्ष औसतन 1654 लोग मारे जाते हैं, 92763 पशुओं का नुकसान होता है। लगभग 71.69 लाख हेक्टेयर क्षेत्र जल प्लावन से बुरी तरह प्रभावित होता है जिसमें 1680 करोड़ रुपए मूल्य की फसलें बर्बाद हुर्इं और 12.40 लाख मकान क्षतिग्रस्त हुए हैं।
हकीकत यह भी है कि बाढ़ के कारण पता चलता है कि किसी नदी का असली स्वरूप क्या है। जब नदी का पानी फैलता है तो उससे आस-पास के भूजल स्रोतों का पुनर्भरण होता जाता है। भूजल स्तर में सुधार न केवल पानी का भंडार होता है बल्कि धरती की सेहत के लिए भी अनिवार्य तत्व है। असम का बाड़ा हिस्सा हो या पश्चिमी उत्तर रदेश का उपजाऊ दोआब, ये सभी बाढ़ से बह कर आई मिट्टी से ही बने हैं। जब किसी नदी में तेज बहाव आता है तो साथ में आई मिट्टी में भारी मात्रा में गाद और पोषक तत्व होते हैं। जब यह गाद खेतों में जमा होती है, तो यह मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाती है, जिससे आगामी फसलों की पैदावार बेहतर होती है। खेती के लिए धरती के नवजीवन की यह प्रक्रिया युगों से बाढ़ के आसरे ही चल रही है। नदियों में बाढ़ के साथ मछली, कछुए और अन्य जलचरों के जीवन का विस्तार होता है। इससे जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित होता है। बाढ़ के पानी के साथ बह कर आने वाले विभिन्न पौधे और जानवर नदियों के किनारे के पारिस्थितिक तंत्र को समृद्ध करते हैं। इस तरह बाढ़ जलीय जीवों और वनस्पतियों की जैव विविधता को बनाए रखने में मदद करती है।
बाढ़ यह भी याद दिलाती है कि नदी इंसान की तरह एक जीवंत संरचना है और उसकी याददाश्त है और उसके जिम्मे पृथ्वी को समयानुसार संरचित करना भी है। तभी नदियां अपने पुराने मार्गों को फिर से खोजती हैं या नए मार्ग बनाती हैं, जिससे नदी की धाराएं स्वाभाविक रूप से पुनर्निर्धारित होती हैं। यह प्रक्रिया भू-आकृतिक परिवर्तनों को निर्मित करती है, जो लंबे समय में धरती पर जीवन के तत्वों को पुष्पित-पल्लवित करने में सहायक होती है। नदियां जब अपने यौवन पर होती है तो अपने साथ सौभाग्य के राज-कान ले कर आती है। खेतों को पोषक तत्व तो जलाशयों में जल भराव के साथ मछली, सिंघाड़ा, मखाने। जब नदी भर्ती है तो ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को पंख लगते हैं। सबसे बड़ी बात, इंसान जो भी कचरा, मालवा चुपके से नदी में डाल देता है, बाढ़ उसे साफ करती है और नदी के लिए गैरजरूरी तत्वों को बाहर कर किनारे पटक देती है। बाढ़ के पानी से नदियों के प्रदूषक बहकर समुद्र या अन्य जल स्रोतों में चले जाते हैं, जिससे नदी की शुद्धता और स्वच्छता में सुधार होता है।
आखिर बाढ़ खलनायक कब बनती है? एक तो नदियों के रास्ते में व्यवधान, खासकर रेत उत्खनन के लिए या फिर विभिन्न परियोजनाओं के लिए बनाए गए बांध या फिर शहरों में पुल जैसी सुविधाएं जुटाने के लिए नदी के बीचों बीच बनाए गए खंभे या अन्य निर्माण, नदी की नाराजगी का कारण होते हैं। फिर छोटी नदियों को बुलाया देना या उन पर कब्जा, छोटी नदियों के तालाब और बड़ी नदियों से मिलन मार्ग को बाधित करना, वहां स्थाई निर्माण कर लेने आदि से भ्रम होता है कि नदी बस्ती में घुस आई, जबकि हकीकत में उस बाढ़ को इंसान ने जल धार के बीच घुस कर खुद आमंत्रित किया होता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकार (एनडीएमए) के पूर्व सचिव नूर मोहम्मद का मानना है कि देश में समन्वित बाढ़ नियंत्रण व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया गया। नदियों के किनारे स्थित गांव में बाढ़ से बचाव के उपाए नहीं किए गए। आज भी गांव में बाढ़ से बचाव के लिए कोई व्यवस्थित तंत्र नहीं है। उन्होंने कहा कि उन क्षेत्रों की पहचान करने की भी जरूरत है जहां बाढ़ में गड़बड़ी की ज्यादा आशंका रहती है। आज बारिश का पानी सीधे नदियों में पहुंच जाता है। वाटर हार्वेस्टिंग की सुनियोजित व्यवस्था नहीं है, ताकि बारिश का पानी जमीन में जा सके। शहरी इलाकों में नाले बंद हो गए हैं और इमारतें बन गई हैं। ऐसे में थोड़ी बारिश में शहरों में जल जमाव हो जाता है। अनेक स्थानों पर बाढ़ का कारण मानवीय हस्तक्षेप है। जलवायु परिवर्तन एक ऐसा कारक है जो अचानक ही बेमौसम बहुत तेज बरसात की जड़ है और इससे सबसे ज्यादा नुकसान होता है।
मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, वरदान साबित हो सकती है। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जो बाढ़ को प्रकोप बनने से बचा सकते हैं। बाढ़ को एक आपदा के रूप में देखने के बनिस्पत इसके दीर्घकालिक लाभों को विचार करना होगा। बाढ़ न केवल नदियों और उनके आस-पास के पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित करती है, बल्कि यह प्राकृतिक संसाधनों के वितरण में संतुलन बनाए रखने में भी मदद करती है। मानव सभ्यता को बाढ़ के साथ सह-अस्तित्व की रणनीतियों को अपनाने और इसके फायदों को समझने की जरूरत है, ताकि प्राकृतिक आपदाओं के नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सके और इसके सकारात्मक पहलुओं का अधिकतम लाभ उठाया जा सके।