बहुत पुरानी कथा है। सुबह का समय था। पाटलिपुत्र में एक भिखारी सबसे व्यस्त चौराहे पर भिक्षा के लिए बैठा था। उसी चौराहे से मंदिर जाने के लिए नगर के एक प्रसिद्ध सेठ गुजरे। भिक्षुक ने बड़ी आशा से उनके सामने अपने हाथ पसारे। उसे उम्मीद थी कि सेठ जरूर कुछ न कुछ देंगे। यह देखकर सेठ धर्म संकट में पड़ गए। उनके पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं था।
उन्होंने भिखारी के हाथ पर अपना हाथ रख कर कहा, भाई, मुझे बड़ा दुख है कि इस समय मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है।
हां, कल जब मैं आऊंगा, तब निश्चित रूप से तुम्हारे लिए कुछ न कुछ लेकर अवश्य आऊंगा। सेठ की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि भिखारी की आंखों से आंसू बह निकले। भिखारी को रोता देख आसपास खड़े लोगों को लगा कि सुबह की बेला में प्रथम व्यक्ति से भिक्षा न मिलने के कारण भिखारी को दुख हो रहा है। सभी ने उसे भिक्षा देनी चाही तो भिखारी और जोर से रोता हुआ बड़े विनम्र भाव से बोला,मैं भिक्षा न मिलने के कारण नहीं रो रहा हूं।
अब मुझे किसी से कुछ भी नहीं चाहिए। सेठजी ने आज मुझे वह सब कुछ दे दिया है, जो आज तक किसी से नहीं मिला। भीख में आज तक मुझे न जाने कितने लोगों ने धन दिए, खाने को दिया। पर हर किसी के भीतर उपकार करने का भाव था। लेकिन सेठजी ने जो दिया वह दुनिया न दे सकी। वह है स्नेह। उन्होंने मुझे भाई कह कर पुकारा। मेरे हाथ पर हाथ रखकर मुझे संबल दिया।
ठीक है कि मुझे भिक्षा चाहिए, पर एक मनुष्य होने के नाते मनुष्योचित व्यवहार भी चाहिए। मुझे मधुर बोल भी चाहिए। आज मुझे जीवन में पहली बार किसी ने भाई कहा है। सेठजी आप जब भी इधर से गुजरें, तो मुझे भाई अवश्य कहें।
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