रिचर्ड महापात्रा |
खेती-किसानी की दुनिया ऐतिहासिक बदलाव से गुजर रही है। खेतों की संख्या तेजी से कम हो रही है जबकि उसका आकार बढ़ रहा है। क्या इसका यह अर्थ है कि खेती मुट्ठी भर हाथों में केंद्रित हो रही है? भारत जैसे देशों में गरीबी और भुखमरी कम करने की कृषि की क्षमता सेवा और उद्योग जैसे किसी भी अन्य क्षेत्र की तुलना में कहीं अधिक है। अगर इस कृषि क्षेत्र का एकीकरण कर कम से कम किसानों को शामिल किया जाता है तो क्या होगा? क्या गैर कृषि क्षेत्रों में कृषि से निष्कासित करोड़ों लोगों को समायोजित करने की क्षमता है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारी खाद्य सुरक्षा भी अब चुनिंदा उत्पादकों द्वारा नियंत्रित की जाएगी?
खेती का पेशा सभ्यतागत बदलाव के दौर में है। भोजन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए टिककर खेती करने की यह मानवीय पहल 12,000 साल से ज्यादा पुरानी है। जब मानव इस पेशे में उतरे थे, तब खेती केवल आवश्यकता आधारित थी। अब यह कई ट्रिलियन डॉलर का व्यवसाय बन चुकी है और वर्तमान में 60 करोड़ खेत दुनियाभर की 800 करोड़ की आबादी का पेट भर रहे हैं। कृषि क्षेत्र में 1980 के दशक से जो परिवर्तन शुरू हुआ वो अगले 30 वर्षों में चरम पर पहुंच जाएगा। अब सवाल उठता है कि आखिर यह परिवर्तन है क्या? दरअसल दुनिया अब नए खेतों को बनता नहीं देख पाएगी। बजाय इसके खेतों का एकीकरण शुरू होगा। भारत जैसे देशों के साथ ही एशिया, अफ्रीका व उत्तरी अमेरिका के अधिकांश गरीब और विकासशील देशों के लिए यह एक ऐसा बदलाव है, जिसके बारे में हमने कभी नहीं सोचा था। और इसलिए हम इसके परिणामों के लिए तैयार नहीं थे।
उदाहरण के लिए भारत में क्रियाशील कृषि जोतों की संख्या 1970-1971 से लगातार बढ़ रही है। 1971 में भारत में 7.1 करोड़ कृषि जोत थी। नवीनतम कृषि गणना (सेंसस) 2015-2016 के अनुसार, अब यह 14.65 करोड़ जोत में बंट गई है। इसी के चलते भारत की कृषि नीति छोटी जोत के कारण उपज में कमी के परिणाम पर केंद्रित है। इसी भूमि पर एक अरब से ज्यादा लोगों का पेट भरने का दारोमदार है। इसे देखते हुए किसी भी कीमत और परिणाम पर उत्पादकता बढ़ाने पर तत्काल ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। यदि वैश्विक प्रवृत्ति को भारतीय परिदृश्य में ढाला जाए तो स्थिति बिलकुल उलटने वाली है।
हाल ही में बोल्डर स्थित यूनिवर्सिटी आॅफ कोलोराडो के शोधकतार्ओं ने अपनी तरह का पहला अध्ययन किया। नेचर सस्टेनेबिलिटी जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में 1969-2013 तक 180 देशों में खेतों की संख्या और आकार का विश्लेषण किया गया। शोधकतार्ओं ने 2100 में स्थिति का पूर्वानुमान लगाने के लिए इस अवधि के रुझानों का उपयोग किया। अध्ययन में अनुमान है कि 2100 में दुनिया में खेतों की संख्या आधी हो जाएगी लेकिन खेतों का आकार दोगुना हो जाएगा। अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में यह चलन पिछले कई दशकों में जगजाहिर हो चुका है।
अमेरिकी कृषि विभाग की आर्थिक शोध शाखा कहती है, ‘20वीं सदी की शुरूआत में कृषि श्रम प्रधान थी। यह ग्रामीण क्षेत्रों में कई छोटे व बिखरे हुए खेतों पर होती थी जहां अमेरिका की आधी से अधिक आबादी रहती थी। दूसरी तरफ 21वीं सदी में कृषि उत्पादन ग्रामीण क्षेत्रों में कम लेकिन बड़े आकार के खेतों में केंद्रित है, जहां अमेरिका की एक चौथाई से भी कम आबादी रहती है।’
1982 से अमेरिका में खेतों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। 2007 में यहां 22 लाख खेत थे जो 2022 में घटकर 20 लाख रह गए। हालांकि औसत खेत का आकार 1970 के दशक में 440 एकड़ से बढ़कर 2022 में 446 एकड़ हो गया। यूनिवर्सिटी आॅफ कोलोराडो के अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि 2050 तक एशिया, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका, आॅशिनिया, लैटिन अमेरिका और कैरिबियाई देशों में नए खेतों का बनना बंद हो जाएगा और उनका एकीकरण (छोटी जोत का मिलाकर बड़े खेत में तब्दील करना) हो जाएगा। उप सहारा अफ्रीका में यह स्थिति 21वीं सदी के अंत तक आएगी। इन क्षेत्रों में कृषि मुख्य नियोक्ता है, जिसमें अधिकांश किसान छोटी जोत वाले हैं। अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार, अगर खेतों की संख्या नहीं भी बदलती, तब भी भूमि अथवा खेत के मालिक कम ही होंगे।
हमारे लिए इसके क्या मायने हैं? इस बदलाव के मुख्य रूप से तीन नतीजे निकलेंगे। पहला, खेती कुछ हाथों में संभवत: बड़ी कंपनियों या कुछ शक्तिशाली व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित हो जाएगी। दूसरा, बड़े खेतों का मतलब है मोनोकल्चर (एकरूपता) जिससे फसलों की विविधता कम हो जाएगी। इसके कारण पोषण विविधता सिमटेगी जिसका असर समग्र खाद्य व पोषण सुरक्षा पर असर पड़ेगा। तीसरा, खाद्य उत्पादन पर भी असर पड़ेगा।
मौजूदा समय में दुनिया की एक-चौथाई कृषि भूमि वाले छोटे खेत एक-तिहाई भोजन का उत्पादन करते हैं। बड़े किसानों/कंपनियों के स्वामित्व की स्थिति में यह क्षेत्र कई प्रकार के जोखिमों के प्रति अधिक संवेदनशील होगा। अध्ययन के लेखक जिया मेहराबी के हवाले से एक अखबार में लिखा है, ‘यदि आप दुनिया में लगभग 60 करोड़ खेतों के जरिए आज की खाद्य प्रणालियों में निवेश कर रहे हैं तो आपका पोर्टफोलियो काफी विविध है। यदि एक खेत को नुकसान पहुंचता है तो संभव है कि आपके पोर्टफोलियो पर पड़ने वाला प्रभाव दूसरे की सफलता से औसत हो जाए। लेकिन यदि आप खेतों की संख्या घटाते हैं और उनका आकार बढ़ाते हैं तो आपके पोर्टफोलियो पर उस झटके का प्रभाव निश्चित रूप से बढ़ने वाला है। आप अधिक खतरों का सामना करेंगे।’
गरीब और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में कृषि की अब भी अहम हिस्सेदारी है। भारत जैसे देशों में गरीबी और भुखमरी कम करने की कृषि की क्षमता सेवा और उद्योग जैसे किसी भी अन्य क्षेत्र की तुलना में कहीं अधिक है। अगर इस कृषि क्षेत्र का एकीकरण कर कम से कम किसानों को शामिल किया जाता है तो क्या होगा? क्या गैर कृषि क्षेत्रों में कृषि से निष्काषित करोड़ों लोगों को समायोजित करने की क्षमता है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारी खाद्य सुरक्षा भी अब चुनिंदा उत्पादकों द्वारा नियंत्रित की जाएगी?
-साभार : डाउन टू अर्थ