पांचवें राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट का यह नतीजा निस्संदेह खुशखबरी जैसा ही है कि देश के 22 राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में से 18 में नवजात शिशुओं और पांच साल से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर में कमी आई है। यकीनन, यह कमी बच्चों के स्वास्थ्य की बेहतर और उनके जीवन की सुरक्षा के समुचित प्रयासों के बगैर संभव नहीं थी और ऐसे प्रयासों के लिए इन राज्यों की सरकारों को उनके हिस्से का श्रेय देने से गुरेज भी नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि इस उपलब्धि में उनका कम से कम इतना योगदान तो है ही कि वे इसे पाने के प्रयत्नों की ओर से सर्वथा उदासीन होकर नहीं रह गर्इं।
यह कहना तो नकारात्मकता की अति करना होगा कि इसे इन सरकारों की काहिली के बावजूद हासिल किया गया है। खासकर, जब सर्वेक्षण में मातृ व शिशु स्वास्थ्य के विभिन्न सूचकांकों में सामने आई बेहतरी भी संतोषजनक है और टीकाकरण व बैंक खाताधारक स्त्रियों की संख्या में वृद्धि भी। प्रजनन दर में कमी व गर्भनिरोधक साधनों के इस्तेमाल में बढ़ोतरी जैसे परिणाम भी उत्साहवर्द्धक हैं और संक्रामक बीमारियों पर अंकुश लगाने की कोशिशें भी रंग लाती दिखती हैं।
लेकिन सरकारें इस उपलब्धि में हिस्सेदार हों तो उन्हें उक्त सर्वे में सामने आए इस चिंताजनक तथ्य की जिम्मेदारी भी स्वीकारनी चाहिए कि 16 राज्यों में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण लगातार बढ़ता गया है, जिससे उनमें से ज्यादातर का वजन और लंबाई सामान्य बच्चों से कम है। यह कुपोषण सच पूछिये तो भूख की समस्या का ही दूसरा और सरकारों को थोड़ा ‘भला’ लगने वाला रूप है। दरअसल, किसी तबके को भुखमरी का शिकार कहने से जो शर्म इन सरकारों पर सीधे-सीधे चस्पां हो जाती है, उसे भूख के बजाय कुपोषण के शिकार की संज्ञा दे दी जाए तो शब्दों के हेर-फेर से सरकारें यह समझने की सहूलियत हासिल कर लेती हैं कि भूख की शर्म उनसे थोड़ी दूर हो गई है। भले ही वे इस तथ्य को छिपा नहीं सकतीं कि इन शिशुओं व बच्चों में कुपोषण इसीलिए बढ़ रहा है कि उन्हें संतुलित आहार नहीं मिल रहा।
दिवंगत राष्ट्रपति केआर नारायणन अपने राष्ट्रपतिकाल में ही कह गए थे कि अब कोई देशवासी भूखा सोता है तो इसका अर्थ यह नहीं कि देश में खाद्यान्नों की कमी है। इसका अर्थ यह है कि उसकी क्रय शक्ति इतनी कम है कि वह अपनी भूख मिटाने के लिए ये खाद्यान्न नहीं खरीद पा रहा। ऐसे में सरकारों को कम से कम अपनी इस विफलता को तो महसूस करना ही चाहिए कि वे देश की आजादी के सात से ज्यादा दशक बीत जाने के बाद भी इन बच्चों के अभिभावकों की आमदनी इतनी नहीं बढ़ा पाई हैं कि वे उनकी भूख या कि पोषण का यथोचित निदान कर सकें।
लेकिन वे इसे महसूस करेंगी, इसमें संदेह है। उन्होंने इस विफलता को तब भी महसूस नहीं की थी, जब 2019 के वैश्विक भूख सूचकांक में अपने 117 देशों में भारत अपने पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, भूटान व श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों से भी नीचे 102वें स्थान पर रहा था और 2020 में 94वें स्थान के बावजूद उसकी यह नियति नहीं बदली थी। तब इसके लिए भूख के खिलाफ लड़ाई में देश के बड़े राज्यों की सरकारों की कमजोर इच्छाशक्ति को सीधा जिम्मेदार ठहराया गया था। इस बदहाली के लिए भी उन्हें ही कठघरे में खड़ा किया गया था कि हमारे देश में छह से 23 माह आयु के केवल 9.6 प्रतिशत बच्चों को ही न्यूनतम मानकों के अनुरूप पोषण मिल पाता है। ये सरकारें तब भी विचलित नहीं ही हुई थीं, जब पिछले साल आई यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में रेखांकित किया गया था कि भारत में पांच साल से कम उम्र में होने वाली कुल मौतों में से 69 प्रतिशत कुपोषण के कारण होती हैं।
बहरहाल, वर्ष 2018 की वैश्विक पोषण रिपोर्ट कहती है कि हमारे देश में कुपोषित बच्चों की संख्या 4.66 करोड़ है, जो दुनिया में सबसे अधिक है, तो यह कहकर संतोष नहीं किया जा सकता कि चूंकि यह पीढ़ियों से चली आ रही चुनौती है तथा इसके कई सामाजिक व आर्थिक आयाम हैं, इसलिए इसके समुचित समाधान में ज्यदा समय लगना स्वाभाविक है। इस सिलसिले में राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार से भी यह सवाल पूछना ही होगा कि उनका महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय पोषण अभियान अच्छे नतीजे क्यों नहीं दे पा रहा और स्वास्थ्य व स्वच्छता के कार्यक्रमों को परस्पर जोड़ने में भी अपेक्षित सफलता क्यों नहीं मिल पा रही है? इसी से जुड़ा हुआ सवाल है कि मातृ-शिशु पोषण को, जिसे कई विशेषज्ञ समेकित विकास का सबसे प्रमुख मानक मानते हैं, इतनी तवज्जो क्यों नहीं दी जा रही कि प्रजनन से पहले और बाद में जच्चा-बच्चा को जरूरी खुराक और देखभाल मिले, जिससे उन्हें जीवन रक्षा के साथ स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से भी छुटकारा मिला रहे?
बहुत संभव है कि वे सब कुछ समझती हों और अपने वर्ग चरित्र के अनुसार इस कारण जानबूझकर उस ओर से नादान बनी रहती हों कि उनकी कृपा से इस समस्या से पीड़ित देश की आबादी का बड़ा हिस्सा अभी भी गरीब और अशिक्षित है, जिसे संसाधनों की उपलब्धता के साथ व्यापक जागरूकता की भी दरकार है। विडम्बना यह कि ये सरकारें खुद पर उक्त आबादी का कोई दबाव महसूस नहीं करतीं, न ही उसके प्रति अपनी कर्तव्य भावना से प्रेरित होती हैं। इसलिए उन्होंने उसमें जागरूकता फैलाने वाले कार्यक्रमों को कर्मकांड में बदलकर हालात को और गंभीर बना दिया है। इसी का फल है कि ग्रामीण क्षेत्रों में न पेयजल की स्वच्छता को लेकर पर्याप्त जागरूकता आ पाई है और न खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता को लेकर ही। वहां सरकारें यह समझ भी विकसित नहीं ही कर पाई हैं कि समृद्ध भारत के निर्माण के लिए स्वस्थ बचपन बहुत जरूरी है।
इस सवाल पर जाएं कि वे यह समझ क्यों नहीं विकसित कर पाई हैं, तो इस निष्कर्ष के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं कि सारा दोष उनकी गलत सरकारी प्राथमिकताओं का है, जिनमें लोगों को रोटी के लिए आटा उपलब्ध कराने से ज्यादा जोर डाटा उपलब्ध कराने पर है। समय के साथ चलने के लिए उन्हें इंटरनेट का लाभ उपलब्ध कराना जरूरी हो सकता है, लेकिन भूख के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण कवियों-शलभ श्रीराम सिंह और संपत सरल-के इस कहे की अनसुनी क्योंकर की जा सकती है कि न कंप्यूटर के डाटा चबाकर जिंदा रहा जा सकता है और न रोटी गूगल से डाउनलोड हो सकती है? हमारे नीति नियामकों और उनकी सरकारों को इन कवियों की कही यह बात शायद इसलिए नहीं सुहाती कि वे इतनी सुरक्षाओं में जीते हैं कि उन्हें लगता है कि उन्होंने तो अपनी सात पीढ़ियों की रोजी-रोटी का प्रबंध कर ही लिया है!
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