महाराष्ट्र में इस साल अगस्त से चल रहा मराठा आरक्षण आंदोलन अचानक हिंसक गया है। आंदोलनकारियों ने बीड के एनसीपी विधायक संदीप क्षीरसागर और जिले के माजलगांव से विधायक प्रकाश सोलंके के घरों, नगर परिषद भवन व एनसीपी दफ्तर में आग लगा दी। बीड में कर्फ्यू के बाद इंटरनेट बंद कर दिया गया है। मंगलवार को जालना पंचायत आॅफिस में आग लगा दी। उस्मानाबाद में भी प्रशासन ने कर्फ्यू लगा दिया गया। आंदोलन मराठवाड़ा के 8 जिलों में फैल गया है। गत दो दिन में राज्य परिवहन निगम की 60 से ज्यादा बसों में तोड़फोड़ की गई है। इससे राज्य परिवहन निगम के 30 डिपो बंद करने पड़े हैं। आरक्षण की मांग को लेकर गत 11 दिन में 13 लोग आत्महत्या कर चुके हैं। जालना में 12 घंटों में तीन लोगों ने सुसाइड करने की कोशिश की। आंदोलन के बीच 29 अक्टूबर को हिंगोली से सांसद हेमंत पाटिल और नासिक के सांसद हेमंत गोडसे ने मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को इस्तीफा भेज दिया है। गेवराई विधानसभा क्षेत्र के विधायक लक्ष्मण पवार ने भी इस्तीफा दिया है।
इस बीच शिंदे सरकार एक्टिव मोड पर है। कैबिनेट उपसमिति की बैठक के बाद सीएम ने कहा कि सरकार ने फिलहाल मराठा समुदाय के 11 हजार लोगों को कुनबी प्रमाणपत्र देने का फैसला कर लिया है। मराठा आरक्षण की मांग को लेकर अनशन पर बैठे मनोज जरांगे का कहना है कि जब तक सभी पात्र मराठियों को कुनबी जाति का सर्टिफिकेट नहीं दिया जाता, आंदोलन जारी रहेगा। सीएम का कहना है कि मराठा आरक्षण मुद्दे पर 3 सदस्यीय कमेटी बनाई जाएगी, जो राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट में मराठा आरक्षण पर क्यूरेटिव पिटीशन दायर करने को लेकर सलाह देगी। कमेटी के अध्यक्ष रिटायर्ड जस्टिस संदीप शिंदे होंगे। मराठाओं को आरक्षण देने के लिए सरकार अध्यादेश भी ला सकती है। पूरे मामले पर चर्चा के लिए राज्य सरकार ने बुधवार को सर्वदलीय बैठक बुलाई है।
पिछले 4 दशक से महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग कर रहे हैं। राज्य सरकार ने ओबीसी के तहत मराठाओं को 2018 में 16 प्रतिशत आरक्षण दिया था। इससे राज्य में कुल आरक्षण 50 प्रतिशत की सीमा को पार कर गया। इसलिए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने मई 2021 में मराठा आरक्षण रद्द कर दिया था। इसके बाद मराठा नेताओं ने मांग की कि उनके समुदाय को ‘कुनबी’ जाति के प्रमाणपत्र दिए जाएं। निजाम काल में मराठवाड़ा क्षेत्र में मराठों को कुनबी माना जाता था और वे ओबीसी श्रेणी में थे। हालांकि जब यह क्षेत्र महाराष्ट्र में शामिल हो गया तो उन्होंने यह दर्जा खो दिया। दरअसल, कुनबी खेती-बाड़ी से जुड़ा समुदाय है। इसे महाराष्ट्र में ओबीसी कैटेगरी में रखा गया है। इन्हें सरकारी नौकरियों से लेकर शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण मिलता है। दावा है कि सितंबर 1948 तक निजाम का शासन खत्म होने तक मराठाओं को कुनबी माना जाता था और ये ओबीसी थे। इसलिए इन्हें कुनबी जाति का दर्जा देकर ओबीसी में शामिल किया जाए।
मुख्यमंत्री शिंदे ने सितंबर में घोषणा की थी कि कैबिनेट ने मराठवाड़ा के मराठों को कुनबी जाति प्रमाण पत्र देने का संकल्प लिया है। इसके लिए गठित पैनल ने दो महीने का समय मांगा। शिंदे की समय समय सीमा 24 अक्टूबर को पूरी हो गई। जारांगे पाटिल ने 14 अक्टूबर को जालना जिले में एक विशाल रैली में कहा कि 24 अक्टूबर के बाद या तो मेरा अंतिम संस्कार जुलूस होगा या समुदाय की जीत का जश्न होगा। ऐसे में 24 अक्टूबर के बाद आंदोलन तय था। फिलहाल मराठवाड़ा इलाके के 8 जिलों-छत्रपति संभाजी नगर (औरंगाबाद), जालना, बीड, धाराशिव (उस्मानाबाद), लातूर, परभणी, हिंगोली और नांदेड़ में प्रदर्शन चल रहे हैं। मराठा आरक्षण की मांग को लेकर पिछले 42 साल में 50 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। पहली मौत इस आंदोलन को शुरू करने वाले मजदूर नेता अन्नासाहेब पाटिल की थी।
अन्नासाहेब पाटिल ने अखिल भारतीय मराठा महासंघ की स्थापना की थी। 22 मार्च 1982 को अन्नासाहेब ने मुंबई में मराठा आरक्षण समेत अन्य 11 मांगों के साथ पहला मार्च निकाला। इसमें हजारों लोग इकट्ठा हुए। उन्होंने कहा था कि अगर मराठा समुदाय को आरक्षण नहीं मिला तो मैं जान दे दूंगा। उस समय महाराष्ट्र में कांग्रेस (आई) सत्ता में थी और बाबासाहेब भोसले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। मुख्यमंत्री ने आश्वासन तो दिया, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाए। इससे नाराज अन्नासाहेब ने 23 मार्च 1982 को अपने सिर में गोली मारकर आत्महत्या कर ली।
इसके बाद 26 जुलाई 1902 को छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज और कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहूजी ने एक फरमान में कहा गया कि उनके राज्य में जो भी सरकारी पद खाली हैं, उनमें 50 प्रतिशत आरक्षण मराठा, कुनबी और अन्य पिछड़े समूहों को दिया जाए। यह एक ऐसा फैसला था जिसने आगे चलकर आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था करने की राह दिखाई। 1942 से 1952 तक बॉम्बे सरकार के दौरान भी मराठा समुदाय को 10 साल तक आरक्षण मिला था। इसके बाद मामला ठंडा पड़ गया।
इंदिरा साहनी केस के अनुसार 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं होना चाहिए।1991 में पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने आर्थिक आधार पर सामान्य श्रेणी के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण देने का आदेश जारी किया था। इस पर इंदिरा साहनी ने उसे चुनौती दी थी। केस में नौ जजों की बेंच ने कहा था कि आरक्षित सीटों, स्थानों की संख्या कुल उपलब्ध स्थानों के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया गया है। तब से ही यह कानून बन गया। राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल जब भी आरक्षण मांगते तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आड़े आ जाता है।
मराठा आरक्षण के मसले दलील यह भी है कि 1991 से अब तक के हालात में काफी कुछ बदलाव हो गया है। ऐसे में राज्यों को यह तय करने का अधिकार देना चाहिए। 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार ने जब आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण दिया, तब संविधान में संशोधन किया गया। इसमें इंदिरा साहनी केस का फैसला आड़े नहीं आया। इससे 28 राज्यों में कुल आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ऊपर निकल गई है। ऐसे में इंदिरा साहनी केस में सुनाए फैसले की समीक्षा होनी चाहिए। लेकिन इंदिरा साहनी केस में 9 जजों की बैंच ने फैसला सुनाया था। यदि उस फैसले को पलटना है या उसका रिव्यू करना है तो नई बेंच में नौ से ज्यादा जज होने चाहिए।