हलीम आईना
दुनिया में एकेश्वरवाद के प्रति समर्पित हो कर विश्व समुदाय का कल्याण और मार्गदर्शन देने वाले दुनिया के आखिरी नबी हजरत मुहम्मद स. अ. व. का जन्म बारह रबीउल अव्वल 570ईस्वी सोमवार को ब्रह्म मुहूर्त में सऊदी अरब के मक्का शहर में हुआ। दादा अबू मुतालिब ने नामकरण किया ‘मुहम्मद’ जिसका अर्थ है -अत्यधिक प्रशंसित या जिसकी प्रशंसा की गई हो। पिता-अब्दुल्लाह आपके जन्म से दो माह पहले ही स्वर्गसिधार गए थे। उस समय के अरबी रीति-रिवाज के अनुसार ‘हलीमा सादिया’ को दाई मां के रूप में अपना दूध पिलाने और पालन पोषण के लिए आपको दे दिया गया था। थोड़े बड़े हुए तो मां बीबी आमिना के पास चले आए। छ : बरस के हुए तो मां चल बसी। उसके दो माह बाद दादा का साया भी नहीं रहा। अब चाचा अबू तालिब और चाची फातिमा बिंत असद की देखभाल में रहे। आपका पूरा नाम मुहम्मद इब्ने अब्दुल्लाह अल हाशिम था। कुरैश जनजाति का हिस्सा प्रतिष्ठित बनू हाशिम कबीले में आपको मुस्तुफा, अहमद, हामिद जैसे उपनामों से पुकारा जाता था।
कबीला संस्कृति के जाहिलाना दौर में, जब हर कबीले का अपना धर्म था, उनके अपने देवी -देवता थे। कोई मूर्ति पूजक, कोई अग्नि पूजक, कोई व्यक्ति पूजक तो कोई प्रकृति पूजक था। औरतें-बच्चे सुरक्षित नहीं, जान -माल की कोई गारंटी नहीं। शराब-कबाब-शबाब का नग्न नृतन था, बेटियों को जिंदा मार देना आम बात थी। इस अंधेरे दौर से दुनिया को बाहर निकालने का पुनीत कार्य पैगम्बर साहब ने किया। बहुत विनम्र, गर्मजोशी से भरे, मददगार, दयालु, सत्यवादी… आदि आदि। अरब प्रदेश में उच्च निष्ठा, सदाचार और ईमानदारी के लिए आपकी एक अलग पहचान बन चुकी थी।
बारह साल से अपने चाचा के साथ व्यापार के सिलसिले में बाहर जाने लगे थे। उच्च चरित्र के धनी, मनमोहक और आकर्षक जो कोई भी उनका चेहरा मुबारक एक बार देखता तो देखता रह जाता था। जब 25साल के हुए तो अरब की सबसे धनी और ताकतवर विधवा महिला जो अपने पिता के युद्ध में मारे जाने के बाद बड़े आर्थिक घराने की उत्तराधिकारी थीं, जिन्होंने अपने पहले पति के निधन के बाद दूसरे व्यक्ति से शादी की किन्तु कुछ समय बाद उसके दुर्व्यवहार से तंग आकर खुद अलग हो गर्इं और फिर कभी शादी न करने का निर्णय ले कर अपना व्यापारिक साम्राज्य संभाल रही थीं।
तभी एक दिन पैगम्बर साहब की ईमानदारी के चर्चे सुनकर अपना माल बेचने के लिए शाम (सीरिया)अपने एक विश्वस्त नौकर मैसरा को गोपनीय तरीके से उन पर हर दृष्टिकोण से निगरानी रखने की कह कर विदा किया। व्यापार में खूब मुनाफा हुआ। नौकर मैसरा ने लौटकर अपनी मालकिन बीबी खदीजा को बताया कि- ‘मुहम्मद तो हर तरह से बेऐब हैं, उनकी परछाई नहीं बनती, उन पर एक बादल छाया कर के चलता है, उनके पसीने में गुलाब के फूल -सी खुशबू आती है, वह कभी झूठ नहीं बोलते… आदि आदि उनके जैसा इन्सान तो मैंने आज तक कहीं देखा ही नहीं!’ हजरत खदीजा ने उनके अद्भुत गुणों के बारे में सुना तो अपने शादी न करने के निर्णय को बदल कर उस जमाने के उलट खुद उनका चुनाव कर उनके चाचा के पास शादी का प्रस्ताव भेज दिया। 40 साल की बहुत समझदार, ताकतवर और धनी विधवा बीबी खदीजा ने 25 साल के सत्य और ईमानदारी के पर्याय युवा पैगम्बर साहब से विवाह कर लिया। हजरत बीबी खदीजा के साथ दुनिया के सबसे बड़े मानवीय धर्म का उद्भव जुड़ा हुआ है। शादी के बाद चार बच्चे हुए सब चल बसे एक लड़की बीबी फातमा जीवित रहीं। पैगम्बर साहब की सबसे लाड़ली बेटी, जो आगे चल कर हजरत अली की बीबी और हजरत हसन -हुसैन की मां बनी। शादी के कुछ साल बाद घरेलु मामलों से बेफिक्र होकर मानवता के मसीहा को इबादत के लिए तन्हाई पसन्द आने लगी थी। वह मक्का शहर के बाहर ऊंची पहाड़ी की चोटी पर ‘गारे हिरा ‘नाम की गुफा में बैठ कर रात-दिन इबादत करने लगे थे।
40 साल एक दिन की आयु में नो रबीउल अव्वल के दिन पहली वही (सन्देश) खुदा के खास संदेश वाहक फरिश्ते हजरत जिब्राइल ने उनके नबी होने की सूचना के साथ कुछ खुदाई संदेश सुनाए। नबुव्वत की घोषणा के बाद आपने तीन बरस तक चुपके-चुपके और चौथे वर्ष से खुले आम अपने आपने काबा में अपने नबी होने की बात दोहराई और प्राप्त खुदाई संदेशों को लोगों को पहुंचाने का कार्य शुरू किया तो उनकी लोकप्रियता आसमान छूने लगी। मक्का के कुछ प्रभावशाली लोगों को खतरा महसूस होने लगा। कुछ लोग तो जान के दुश्मन हो गए। बातचीत, लेन -देन, बाजारों में चलने-फिरने पर पाबंदी लगा दी गई। नबुव्वत के नवें साल उनके बायकाट का ऐलान कर दिया गया।
दसवें साल में चाचा अबू तालिब और उनके तीन दिन बाद उनकी प्यारी बीबी खदीजा का भी इंतकाल हो गया। मुशरिकों के हौसले बुलंद हो गए। अंतत: 622ईस्वी को मक्का से अपने अनुयायियों के साथ मदीना के लिए कूच करना पड़ा उनके इस सफर को हिजरत कहा गया। इसी से इस्लामिक कैलेंडर हिजरी संवत की शुरुआत हुई। मदीना आए तो अंसार लोगों ने उनकी खूब मदद की। मदीना में भी अपने खुदाई संदेशों के कारण वह लोकप्रिय हो गए। कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में अनुयायी हो चुके तो मक्का लौटकर विजय हासिल की तथा मक्का स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया। कुरआन में कुल 114 चेप्टर हैं जिन्हें सूरा कहा जाता है। सूरा के अंदर छोटे-छोटे खंड होते हैं, जिन्हें आयत कहा जाता है। 30पारों की पूरी कुरआन में 6236आयत हैं। पैगम्बर साहब ने अपने जीवन-काल में जो कुछ भी कहा और किया उनको ‘हदीस’ कहा जाता है जो उनके स्वर्गवास 62 वर्ष की उम्र में 8 जून 632 के बाद लिखी गई थी। जिनको तैयार करवाने में बीबी आयशा की प्रमुख भूमिका रही है। पैगम्बर साहब ने अपने अन्तिम हज यात्रा के दौरान ही लोगों से पंद्रह बातों का खुतबा दे कर उन पर अमल करने की बात कहते हुए कहा था-मेरे बाद अब कोई नबी आने वाला नहीं है। पैगम्बर साहब की जयंती और पुण्यतिथि संयोग से एक ही दिन होने के कारण बारह रबिउल अव्वल को उनकी जयंती ‘ईद मीलादुन्नबी’ (बारह वफात )के नाम से पूरी दुनिया में हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है।