अभी हाल ही में समलैंगिगक विवाह के मामले में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा पेश करते हुए साफ कहा है कि वह समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के पक्ष में नहीं है। सरकार का स्पष्ट मत है कि भारतीय समाज में विवाह स्त्री व पुरुष के बीच एक ऐसा भावनात्मक रिश्ता है, जो सन्तति को जन्म दे सके। अगर समलंैगिक विवाह को मान्यता प्रदान की जाती है तो सामाजिक रुप से स्वीकृत विवाह संस्था और व्यक्तिगत आजादी से जुड़े कानूनों के बीच टकराव की स्थिति बनेगी। उच्चतम न्यायालय ने पिछले दिनों ही सुनवाई में मदद के लिए केंद्र सरकार व अटार्नी जनरल को नोटिस जारी करके सरकार से इस मसले पर अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था। गौरतलब है कि प्रधान न्यायधीश डीवाई चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने समलैंगिक विवाह करने के अधिकार पर अमल करने और स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत अपने विवाह को पंजीकृत करने के निर्देश देने की मांग कर रहे दो समलैंगिक जोड़ों की ओर से पेश वरिष्ठ वकीलों की दलीलें सुनने के बाद नोटिस जारी किए थे।
उस समय कोर्ट को यह भी बताया गया था कि केरल हाई कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट में भी ऐसी याचिकायें लंबित हैं। याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी का साफ कहना था कि इस मसले पर वह किसी धर्म की भावनाओं को आहत किए बिना केवल स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत समलैंगिक विवाह की कानूनी मान्यता देने की मांग कर रहे हैं। दरअसल देखा जाए तो यह मुद्दा नवतेज सिंह जौहर (समलैगिक संबध) और पुत्ता स्वामी (निजता का अधिकार) मामले में दिए गए फैसले की आगामी कड़ी है।
पिछले दिनों ही शीर्ष अदालत में दो याचिकाएं और दाखिल की गर्इं थीं। इनमें एक हैदराबाद के सुप्रियो चक्रवर्ती व अभय डॉगं ने दाखिल की थी और दूसरी याचिका फिरोज महरोत्रा व उदयराज की ओर से दाखिल की गई थी। दोनों याचिकाओं के परीक्षण पर शीर्ष अदालत ने अपनी सहमति दे दी थी। परंतु इसी के साथ-साथ विशेष विवाह कानून के तहत विवाह की समानता की मांग वाली एक और याचिका भी वकील शादान फरासत की ओर दाखिल की गई है जो विचार के लिए वह अभी लंबित है।
देश की आजादी के पूर्व एवं बाद में समलैंगिकता को लेकर कई बार बहस-मुबाहिसों का दौर चला, परंतु देर-सबेर यह बहस पृष्ठभूमि में जाती रही। वर्तमान में समलैंगिक यौन व्यवहार से जुड़े उस माहौल को लेकर आज जो विमर्श शुरू हुआ है, उसका तात्पर्य यह है कि यदि समाज का कोई वर्ग अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं से बगावत करते हुए कोई विपरीत रास्ता अपनाता है तो क्या समाज को उन्हें इस विकल्प को चुनने की आजादी दे देनी चाहिए?
हालांकि अभी यह विमर्श अपनी शैश्वास्था में है, परंतु न्यायालय के लचीले रुख के कारण इस विमर्श में तेजी आने की पूर्ण सम्भावनाएं हैं। अभी हमारा समाज मानसिक तौर पर इतना आधुनिक नहीं हो पाया है जो इस प्रकार के प्रकृति के विरुद्ध एवं असामान्य व्यवहार को सीधे तौर पर स्वीकार कर सके। लेकिन वर्तमान की सामाजिक व्यवस्था में इस प्रकार के समलैंगिक संबन्ध रखने वालों से सीधे रूप से मुंह भी नहीं मोड़ा जा सकता।
यह एक ऐतिहासिक कड़वी सच्चाई है कि समलैंगिकता इतिहास में किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है। लेकिन हम उसकी चर्चा करने में हिचकिचाते रहे हैं। सही बात तो यह है कि समलैंगिक व्यवहार अथवा विवाह आज भी एक असामान्य एवं अप्राकृतिक व्यवहार की श्रेणी में आता है। वैश्विक संस्कृति के संक्रमण के साथ-साथ विदेशों से आकर समलैंगिक व्यवहार से जुड़ी अपसंस्कृति अब अपने देश की आवोहवा में भी तेजी से घुल-मिल रही है।
ब्रिटेन में पिछले दिनों समलैंगिक विवाहों को वैद्य करार दे दिया गया। ब्रिटेन के अलावा डेनमार्क (1989), नार्वे (1996), स्वीडन (1996), आयरलैण्ड (1996), चीन (1997), नीदरलैण्ड (2001), जर्मनी (2001), फिनलैंड (2002), बेल्जियम (2003), न्यूजीलैण्ड (2004), कनाडा (2005), स्पेन (2005), तथा नैपाल (2007),अमेरिका (2022) के अलावा यूरोपीय संघ के 27 देशों , एशिया के वियतनाम, फिलिपाइन्स, थाईलैंड तथा दक्षिण अफ्रीका के चाड, कांगों तथा मैडागास्कर इत्यादि राज्यों में समलैंगिक व्यवहार से जुडे कानून प्रभावी हैं।
समलैंगिकता के विषय में प्रसिद्ध मनौवैज्ञानिक सिग्मड फ्रायड का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति के मन में नर व मादा दोनों के लिए बरावर का आकर्षण रहता है। परंतु जब माता-पिता और बच्चों के बीच का संवाद असामान्य व सामाजिक संबन्धों का ताना-बाना तनावपूर्ण रहने लगता है, तब स्वभावत: एक अनजाने भय के चलते बच्चों का व्यवहार समलैंगिक होने की संभावनाएं बढ जाती हैं।
मानवीय व्यवहार का समाज- मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त यह बताता है कि लैंगिकता (सैक्सुअलिटी) सामाजिक सीख के माध्यम से ही आत्मसात होती है। उल्लेखनीय है कि किशोरावस्था ही वह अवस्था है, जहां से नर व मादा के बीच यौन व्यवहार का अनुभव प्रारम्भ होता है। कई बार परिवारों में अत्यधिक प्रतिबंध अथवा विपरीत लिंिगयों से लंबे समय तक संवादहीनता के चलते किशोर स्वयं को असहज अनुभव करने लगते है।
इस असहजता के चलते ही किशोर-किशोरियों में समलैंगिक व्यवहार से सामंजस्य बैठाने के भाव घर करने लगते हैं। साथ ही यदि विषम लिंगीय यौन व्यवहार अप्रसन्नतापूर्ण, असन्तुष्ट अथवा अतिकष्टकारी रहा हो, तब भी स्त्री-पुरुष समलिंगीय व्यवहार के प्रति खुशी एवं संतुष्टि का अनुभव करने लगते हैं। निष्कर्षत: लोगों का यह समलैंगिक व्यवहार कहीं न कहीं उनके पारिवारिक एवं सामाजिक असुंतलन का परिणाम अधिक है।
कहना न होगा कि विरासत में प्राप्त सांस्कृतिक सीमाओं से पूर्णतया: बाहर जाकर यदि कोई व्यक्ति व्यवहार के मानकीकृत मानदंडों के विपरीत व्यवहार का कोई विकल्प चुनता है तो यह उनकी निजी जिंदगी की आजादी का हिस्सा तो हो सकता है, परंतु साफतौर पर यह पारिवारिक संस्कृति एवं संस्था के लिए चुनौती जरूर रहेगी। आज समलैगिकता का यह मसला केवल साथ-साथ रहने का ही नहीं है, बल्कि विशेषज्ञों का मानना है कि समलैगिकों को यह अधिकार न मिलने से उन्हें अनेक अधिकारों से वंचित होने का बड़ा खतरा भी है।
इतना जरूर है कि इस मसले पर कानूनी जद्दोजहद से भविष्य में समलैंगिक व्यवहार जैसी विसंगतियों में और अधिक तेजी आने की संभावनाएं तो रहेंगी ही।अब देखना है कि केंद्र सरकार के उचित व संस्कृतिरक्षक पक्ष को भार प्रदान करते हुए देश की सर्वोच्च अदालत भारतीय विवाह संस्था और समलैंगिक लोगों की व्यक्तिगत आजादी के बीच किस प्रकार समायोजन करती है।