पिछले दिनों छत्तीसगढ के भूतपूर्व प्रिंसिपल सेक्रेटरी अमन सिंह के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति अर्जन के मामले में दर्ज एफआईआर रद्द करने के उच्च न्यायालय के आदेश को पलटते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने देश में फैले लोभ-लालच को लेकर बेहद कडी टिप्पणी की। मामले की सुनाई कर रही न्यायालय की न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट व न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की दो सदस्यीय बेंच ने यह तक कहने से संकोच नहीं किया कि लोभ-लालच और उनकी जाई अतृप्ति ने न सिर्फ भ्रष्टाचार को समाज का कैंसर बल्कि संविधान की प्रस्तावना में लिए गए धन के समान वितरण व सामाजिक न्याय के संकल्प को दूर का सपना बना डाला है। कई हलकों को उम्मीद थी कि बेंच की इन तल्ख टिप्पणियों के बाद देश में लोभ-लालच (जिन्हें प्राय: सारे धर्मों में अज्ञानता जैसा ही दु:ख का कारण बताया गया है) को लेकर व्यापक बहस छिड़ेगी, साथ ही उससे निजात के उपायों पर भी गंभीर विचार विमर्श आरंभ होगा।
लेकिन अफसोस कि ऐसा कुछ भी होता नहीं दिखाई दे रहा और इस तक पर विचार नहीं किया जा रहा कि ‘ज्यादा का नहीं लालच हमको’ वाली परम्परागत पहचान के बरक्स हमारे देश में इतना लोभ-लालच भला आया कहां से? और क्या न सिर्फ सत्ता, राजनीति, उद्योग व व्यापार, बल्कि खेलों के मैदानों तक में अनैतिकता, मूल्यहीनता व भ्रष्टाचार वगैरह की जिन दुर्घटनाओं से हम प्राय: दो चार होते रहते हैं, वे वास्तव में लोभ-लालच के विकराल हो जाने होने से घट रही एक ही महा-दुर्घटना की अलग-अलग परिणतियां हैं।
प्रसंगवश, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने इस महा-दुर्घटना को आजादी की पहली वर्षगांठ के अवसर पर ही पहचान लिया था। तभी उन्होंने देसी सत्ताधीशों के नए उभरते वर्ग की पतनशील प्रवृत्तियों को सुरसा की तरह मुंह फैलाते देखकर लिखा था-टोपी कहती है मैं थैली बन सकती हूं, कुर्ता कहता है मुझे बोरिया ही कर लो। ईमान बचाकर कहता है, आंखें सबकी बिकने को हूं तैयार खुशी हो जो दे दो।
किसे नहीं मालूम कि बीती शताब्दी के आखिरी दशक तक देश की नदियों में बहा पानी इस वर्ग की ‘सबकी आंखें बचाकर बिकने की मजबूरी’ को भी बहा ले गया! तब दुनिया मुट्ठी में करने को आतुर उसकी हसरतों ने पुरानी बाड़-बंदियों से निजात पाकर ‘ग्लोबल विलेज’ के ताल से ताल मिलाया तो वे खरीद-:बिक्री के मणिकांचन संयोग के ऐसे इस्तेमाल की ओर बढ़ चलीं कि देखने वालों की आंखें फटी की फटी रह जाएं!
याद कीजिए, 1991 में पीवी नरसिंहराव की सरकार ने भूमंडलीकरण की नई आर्थिक नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाना शुरू किया तो देश में ऐसा मानने वाले भी थे ही कि उसका उद्देश्य सत्तावर्ग द्वारा आजादी की लड़ाई के दौरान अर्जित मूल्यों की बिक्री से देश-विदेश में जमा किए गए काले धन को खुलकर कलाबाजियां दिखाने का अवसर प्रदान करना है। पर तब सारे विरोधों की अनसुनी करके उन नीतियों को थोप दिया गया जो अब देश के रंध्र-रंध्र से उसके मान व ईमान दोनों का लहू टपकाने पर आमादा है! मनुष्य को मनुष्य, राजनीति को राजनीति, खेलों को खेल और मनोरंजन को मनोरंजन के रूप में जिंदा नहीं रहने दे रहीं।
सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयंते की तो उन्होंने ऐसी पुनर्प्रतिष्ठा कर दी है कि ‘पैसा गुरु और सब चेला!’ जैसी पुरानी कहावत पूंजी ब्रह्म और मुनाफा मोक्ष को युगसत्य बनाकर मोद मना रही है। बड़ी पूंजी व राज्य के गठजोड़ के बीच आज किसी को समता पर आधारित समाजवादी समाज के निर्माण का संवैधानिक संकल्प तक याद नहीं है।
देश में भूमंडलीकरण के पिछले तीन दशकों में जितने भी बड़े घपले, घोटाले या भ्रष्टाचार हुए हैं, उनका दूसरा पक्ष नेता, पत्रकार, क्रिकेटर, सेलीब्रिटी या सेनाधिकारी कोई भी हो, पहला पक्ष बड़ी या बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही हैं। हां, उनकी सबसे बडे लाभार्थी भी वही रही हैं। कहते तो यहां तक हैं कि उक्त कंपनियों में से अनेक में हमारे लोकतंत्र पर सवारी गांठ रहे सत्ताधीशों या उनके अपनों का कालाधन लगा हुआ है। इतना ही नहीं, कई के कर्ताधर्ता, सीइओ व वकील सब उसी वर्ग से आते है जो अपने लोभ को तो जानते ही हैं, हमारे लोभ-लालच से भी वाकिफ हैं ओर इसीलिए ‘सफल’ हो रहे हैं!
सच पूछिए तो वे एक ही काम करते हैं-हमारी कुंठाओं व लोभों को प्रायोजित करने का। आकांक्षा व प्रतीक्षा के द्वंद्व की वह फांस तो इसमें लगातार उनकी मदद करती ही है, जिससे एक विज्ञापन के शब्द उधार लेकर कहें तो कोई बच नहीं पाएगा। अमीरों के लिए उनका संदेश होता है कि वे अभी और अमीर हो सकते हैं जबकि गरीबों के लिए यह कि उन्हें अपने जिल्लत या बदहाली के दिन खत्म करने हैं तो फौरन से पेश्तर लूटो-खाओ की ग्लोबल आंधी का हिस्सा बन जाना और ऐश्वर्य का कोई न कोई कोना अपने नाम आरक्षित करा लेना चाहिए।
जिनसे और कुछ करते न बने, उन्हें अपने लोभ की तुष्टि के लिए ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसे खेल खेलने और अपने दिन बहुरा लेने चाहिए। क्या आश्चर्य कि बड़ी कंपनियां बड़े-बड़े पैकेज देकर हमारी युवाशक्ति के एक हिस्से को हमारी ही लूट के अभियान में इस्तेमाल कर रही हैं।
उन्होंने हमारे समूचे सत्तातंत्र को ऐसी रतौंधी के हवाले कर दिया है कि वह उनके अंतर्विरोधों को भी आशा की निगाह से देखता और गरीबी की रेखा के बीचे जीवन यापन करने वालों व कुपोषितों की संख्या तक को विवादास्पद बनाकर उनकी ओर से निगाहें फेर लेता और आगे बढ़कर नए इंडिया के जन्म का सोहर गाता है। उसे इससे कोई मतलब नहीं होता कि ये कंपनियां अब राजनीति से नियंत्रित होने के बजाय उसको नियंत्रित करने लगी हैं।
दुर्भाग्य से फिर भी हम उन्हें इंगित करने को उत्सुक नहीं हैं, जो लगातार हमारे लोभों व लालचों को बेकाबू करने में लगे हैं ताकि एक दिन हमारा भविष्य फिक्स कर सकें! हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि 2014 में सब-कुछ बदल डालने के वायदे पर सिंहासन पर बैठे हमारे नए सत्ताधीश भी 24 जुलाई, 1991 को नरसिंहराव सरकार द्वारा प्रवर्तित आर्थिक नीतियों की सड़कों पर ही फर्राटा मारते बढे जा रहे हैं और उन्हें हाइवे में बदल रहे हैं-भले ही उन नीतियों के प्रवर्तक अमेरिका तक का मन अब उन नीतियों से खट्टा हो चुका है और वह उन पर आंशिक ही सही, पुनर्विचार करता हुआ ‘अमेरिका फर्स्ट’ तक लौट चुका है।