Tuesday, July 2, 2024
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वो कमरा क्यों याद आता है!

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Ravivani 34


Sudhanshu Gupta 1हाल ही में मेरा कमरा-भाग दो (काव्यांश प्रकाशन) पढ़ी। जाहिर है मेरा कमरा से अभिप्राय यहां लेखक का कमरा है। इस किताब का संपादन वरिष्ठ कहानीकार सुरेश उनियाल ने किया है। पढ़ते हुए, मैं सोचता रहा कि ‘मेरा कमरा’ का सबसे पहले इस्तेमाल किसने कब किया। पता चला कि 1929 में सबसे पहले वर्जिनया वुल्फ ने एक निबंध लिखा था-एक रूम आॅफ वन्स ओन। इस निबंध में उन्होंने कहा था कि पुरुष अपने कमरे का (लेखन के लिए) बिना किसी सवाल के जीवनभर उपयोग करता है। वुल्फ का कहना था, हर महिला का भी अपना एक कमरा होना चाहिए, जो उन्हें स्पेस और बिना किसी बाधा के लिखने की सहूलियत दे। वुल्फ 20वीं सदी की ब्रिटिश लेखिका थीं। पता नहीं उनके इस निबंध के बाद कितनी स्त्रियों को अपना कमरा मिला! लेकिन भारतीय और खासकर हिन्दी समाज में तो यह काम इसलिए भी दुर्लभ था, क्योंकि अधिकांश लेखक निम्न मध्यवर्ग से आते हैं। बहुत से लेखक ऐसे भी रहे हैं, जिनका पूरा जीवन एक या दो कमरों के फ्लैट्स में बीतता है और आज भी बीत रहा है। फिर भी यह स्वप्न तो हो ही सकता है कि लेखक का अपना एक कमरा हो, जिसमें खूब किताबें, लिखने की मेज कुर्सी हो और जहाँ साहित्यिक मित्रों के साथ गोष्ठियों की सहूलियत हो। लेखकों के कमरे को पुस्तकाकार देने की पहली कोशिश अमृता प्रीतम ने की थी। उनके संपादन में मेरा कमरा शीर्षक से 1980 में एक किताब प्रकाशित हुई। इसमें लगभग 25 लेखकों ने(अधिकांश पंजाबी) अपने कमरे के परिवेश को दर्ज किया। संभवत: इसी से प्रेरित होकर प्रबोध उनियाल ने मेरा कमरा-भाग 1 का संपादन किया। इसमें अपने कमरे को तलाश करते या याद करते 40 लेखक थे। इसी की अगली कड़ी का संपादन किया है सुरेश उनियाल ने। इसमें 17 लेखक-पत्रकारों (इसे आप मेरी अज्ञानता कह सकते हैं कि मैं कुछ को बिल्कुल नहीं जानता)ने अपने-अपने कमरे की तस्वीर बनाई है। मैं इस किताब को पढ़ते हुए बार-बार यह सोचता रहा कि क्या लेखक का कोई एक कमरा हो सकता है! निम्न मध्यवर्गीय परिवार का मुखिया एक छोटे से घर के सपने के साथ जीता है। कभी यह सपना पूरा हो जाता है और कभी नहीं होता। पूरा होता है तब भी किसी के लिए एक कमरा नहीं होता बल्कि सबके लिए सब कुछ होता है।

अपने घर तक पहुंचने से पहले जाहिर है बहुत से मकान बदले होंगे, कमरे बदले होंगे, परिवेश बदला होगा, स्थितियां बदली होंगी, दोस्त बदले होंगे, शौक बदले होंगे, प्राथमिकताएं बदली होंगी और अपने कमरे को लेकर लेखक की दृष्टि भी बदली होगी। इन सभी आलेखों को पढ़ने के बाद यह पता चला कि कमरे के नाम पर लेखकों के पास पहले कमरों की स्मृतियाँ हैं-सुनहरी स्मृतियाँ हैं (पल्लव), किताबों का ढेर है, जो लगातार बढ़ता जा रहा है और कबाड़खाने में तब्दील हो रहा है (बलराम), कहीं कमरे के बहाने लेखक की भव्यता दिखाई देती है तो कहीं लेखक की लेखकीय उपलब्धियां और कहीं-कहीं तो आपसी रिश्ते भी साफ दिखाई देते हैं। मित्रों के साथ संवाद है, गोष्ठियाँ हैं और लिखी गई रचनाएँ हैं। सूरज प्रकाश का आलेख इस दृष्टि से मुझे अच्छा लगा कि उनका कमरा ‘कॉंस्टेंट’ नहीं रहा, बल्कि बदलते-बदलते वह मोबाइल के भीतर सिमट गया। वह लिखते हैं, मैंने पूरी जिन्दगी में 26 बार मकान बदले। कभी एक ही कमरे में परिवार के 11 सदस्य रहे तो कभी तीन कमरों के फ्लैट में अकेला रहा। लेकिन न लिख पाने की छटपटाहट हमेशा रही। स्वाभाविक है कि इस छटपटाहट का कमरे से कोई रिश्ता नहीं होगा, जब भी इसे बाहर किसी रचना के रूप में आना होता है तो यह आती है। अब सूरज प्रकाश जो भी लिखते हैं मोबाइल पर बोलकर लिखते हैं। यह काम वह किसी कमरे में, किसी रेस्तरां की मेज पर, किसी होटल या रिसॉर्ट के कमरे में, कहीं भी कर सकते हैं और कर रहे हैं। यानी मोबाइल के भीतर ही उनका कमरा है। कह सकते हैं कि कमरा उनके भीतर है, जिसे उन्होंने मोबाइल से ‘कनेक्ट’ कर रखा है।

दूसरी तरफ, महेश दर्पण ऐसा लगता है अपना कमरा जीवनभर तलाशते रहे। उनकी यह तलाश कभी पूरी नहीं होती। या यह भी कह सकते हैं कि वह अपने भीतर के लेखक को तराशते रहे और कमरे पर कोई निर्भरता उन्होंने नहीं बनाई। वह लिखते हैं-जीवन के सातवें दशक में आ जाने के बावजूद आज तक मैं कुर्सी-मेज पर बैठकर लिखने वाला लेखक नहीं बन सका हूं। जमीन पर पटला या चौकी रखकर लिखना, पलंग पर ही जम जाना या एकांत जहाँ मिले वहीं बैठकर धूनी रमा लेना मुझे अच्छा लगता है। वह यह भी कहते हैं कि मेरा विश्वास है कि जहाँ बैठकर लिखो, वही हो जाता है लेखक का कमरा। राजकमल सोसायटी की पार्किंग में खड़ी अपनी गाड़ी में बैठकर लिख लेते हैं तो सुरेश उनियाल को नेताजी नगर का किराये का वह कमरा याद आता है, जहाँ उन्हें लिखते हुए सबसे अधिक संतुष्टि मिली। यह बात थोड़ी खटकी कि इन सत्रह आलेखों में स्त्री लेखक सिर्फ एक है। व्यंग्यकार अर्चना चतुवेर्दी, जो अपने सपनों के कमरे को याद करती हैं और जिन्होंने बेडरूम के छोटे-से कोने को ही अपना कमरा, अपना रचना संसार बना लिया है। यह बात इसलिए भी अखरती है, क्योंकि आज बड़ी संख्या में स्त्रियाँ लिख रही हैं और अच्छा लिख रही हैं।

मेरा कमरा-पार्ट 2 के सभी आलेख कुछ बातें साफ करते हैं। पहली, लेखक के लिए कमरे का अर्थ है, साहित्यिक परिवेश, गोष्ठियां, साहित्यिक मित्र, लगातार सीखने और आगे बढ़ने के रास्ते। दूसरी, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि पहले कमरे का साहित्यिक जीवन लेखकों के लिए सबसे समृद्ध रहा। सुरेश उनियाल लिखते हैं कि नेताजी नगर का किराये का वह मकान मेरी साहित्यिक पहचान बना। बलराम याद करते हैं कि कानपुर की श्रमिक बस्ती के किराए के उस कमरे में, जहां शौच के लिए घर से दूर सार्वजनिक शौचालय जाना पड़ता था, मैं ऐसी कहानियाँ लिख सका जो मेरी पहचान बनीं। लेकिन दिल्ली की मयूर विहार जैसी पॉश कॉलोनी के थ्री बेडरूम फ्लैट में रहकर क्या लिख सका? ‘गोआ में तुम’, ‘शुभ दिन’, ‘फर्क’ और ‘चोट’ जैसी फुटकर कहानियाँ। वह लिखते हैं-इसका मतलब क्या यही नहीं कि प्रेमचंद, जैनेन्द्र, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन और त्रिलोचन की तरह अभावमय जीवन में ही श्रेष्ठ सृजन संभव हो पाता है। बलराम की इस बात में मैं इतना और जोड़ देता हूं कि क्या सुविधामय जीवन आपकी प्राथमिकताएँ भी बदल नहीं देता, सुविधाएं और सहूलियत आने के बाद लेखन आपकी प्राथमिकता नहीं रह जाता!

मेरा कमरा पार्ट 2 आपको सत्तर और 80 के दशक की दुनिया की तरफ ले जाती है, जहाँ आप देख सकते हैं साहित्य की दुनिया का परिवेश, लेखन शुरू कर रहे या थोड़ा बहुत नाम बना चुके लेखकों का संसार, लेखन का उनका कमरा, उस समय के उनके संघर्ष, उनकी जिदें और उनके जुनून, उनके सपने। आप चाहें तो यह भी देख सकते हैं, एक कमरे की आकांक्षा से शुरू हुआ लेखकों का सफर आज कहां समाप्त हो रहा है और वे क्या लिख रहे हैं और क्यों उन्हें वह कमरा याद आता है, जहाँ से उनका साहित्यिक सफर शुरू हुआ था।


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