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हमें यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि यह जो मोबाइल और लैपटॉप है, आज के युग की सच्चाई है। इसे एकदम से नकार के कोई बात नहीं हो सकती। वक्त की गाड़ी में रिवर्स गेयर नहीं हुआ करते, इसलिए हम पीछे के दिनों में लौट के बच्चों की बेहतरी के लिए कुछ नहीं कर सकते। आज हम जिस दुनिया में हैं, उसका बच्चों के लिए क्या और कैसा सकारात्मक उपयोग हो सकता है-यह हमको सोचना है। अब फिर से मासूम और खुशहाल बचपन के लौटाने का यही एक रास्ता बचा है। आज के बच्चे बड़े सुपर-डुपर हैं। जिस उम्र में हम डरते-डरते साइकिल सीख रहे थे, उस वय के बच्चों की स्टाइलिस बाइकिंग देख आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। मोबाइल और लैपटॉप पर सधे अंदाज में चलती उनकी अंगुलियां भी कम हैरत अंगेज नहीं हैं। उनकी एक क्लिक गैजेट की स्क्रीन को अक्षरों, रंगों और चित्रों से रोशन कर देती हैं।
यहां क्या नहीं है? खोजने पर शेक्सपियर, गोर्की, बालजाक, लुइस कैरोल, जेके राउलिंग से लेकर प्रेमचंद, प्रसाद, सुभद्रा-कुमारी चौहान, दिनकर, सत्यजित रे, गुलजार, बच्चन, सोहनलाल द्विवेदी, महादेवी वर्मा, पंत का वैविध्यपूर्ण मोहक साहित्य मिल जाएगा। रामायण, महाभारत, जातक कथाएं, पंचतंत्र, हितोपदेश और पुराण भी मिलेंगे।
यहां एनीमेशन है, तो भूत-प्रेत की डरावनी दुनिया भी! खौफनाक कारनामों भरे वीडियो गेम, कार्टून के साथ-साथ मावलियों की भाषा में चलने वाले गेमरों/हैकरों की बेसिर-पैर की कहानियों की क्लिप्स भी मिलेगी। फ्रीफायर, पबजी से होकर गैम्बलिंग की तरफ जाता रास्ता है, तो कॉमिक पात्रों की हँसाने-गुदगुदाने वाली चेष्टाएं भी हैं।
तीन दशक पहले टीवी, फिर वीडियो गेम और अब मोबाइल-लैपटॉप के जरिए अनलिमिटेड फ्री डेटा वाले इंटरनेट ने आज के बच्चों को व्यस्त रखने का ऐसा इंतजाम कर दिया है कि खेल का मैदान और किताबें उनसे दूर चली गई हैं।
कभी सफदर हाशमी ने एक कविता लिखी थी-‘किताबें कुछ कहना चाहतीं हैं’। इसमें पुस्तकों की सार्थकता को कई स्तरों पर रेखांकित किया गया था।
मगर आज की तारीख में…किताबों की बातें-बीते जामनों की, दुनिया के इंसानों की…आज की, कल की, खुशियों और गमों की-सब एक गूगल में समाहित है। ‘परियों के किस्से, साइंस की आवाज, राकेट का राज, झरनों का गुनगुनाना, चिड़ियों का चहचहाना…’ बस एक कमांड पर हाजिर हो जाएगा। कितने लकदक और बड़े संसार में जी रहे हैं आज के बच्चे! मगर यह उदास हैं।
इनके होठों की हंसी और चाल की मस्ती कहाँ चली गई भला!धमा चौकड़ी, शरारतें, ठिठोलियाँ, खिलंदड़ापन यह सब तो बचपन का हिस्सा है। इसका न होना भी कैसा बचपन! नपा-तुला व्यवहार, ओढ़ी हुईगंभीरता, अकेलेपन से घिरे और सपनों की चमक से खाली आंखे..। कुछ तो गड़बड़ लगता है। हम अपने बचपन की तरफ देखते हैं, तो क्या था ? आज जैसी जगमग स्थिति की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
मगर खुशियों की बेशुमार धड़कनें उसमें समाहित थीं। हमारे बचपन के दिनों में बसवाड़ियों और पोखरों से भरा गाँव, जिसके आखिर में घनी अमराइयाँ और आगे आसमान नीचे आकार धरती को ढँक लेता था। छोटी सी दुनिया और उससे जुड़ी हमारी ढेर सारी जिज्ञासाएँ…इसके लिए हमारे माँ-बाबूजी तो थे ही! दादा-दादी, काका-काकी और भाई-भौजाई की पूरी जमात थी।
इनमें जो भी फुरसत में होता, उससे हम अपनी बात कह सकते थे। यहाँ तक कि पड़ोस के बड़े-बुजुर्ग भी हमारा मार्ग दर्शन करने में पीछे नहीं रहते थे। सर्दियों में अलाव के आसपास किस्से-कहानियों की दुनिया आबाद हो जाया करती थी। इन कहानियों से काव्य का भी आनन्द मिलता था। क्योंकि अधिकतर कहानियों के संवाद गेय होते थे।
कुछ कहानी तो पूरी की पूरी गाकर सुनाई जाती थी। बचपन की इन कहानियों के पात्र जंगली जानवर, पक्षी, साधु, लकड़हारा, किसान-मजदूर, चोर-डाकू, सेठ-साहूकार, राजा-रानी, मंत्री, सिपाही, कलाकार, परी, राक्षस, राजकुमार-राजकुमारी, सेनापति वगैरह हुआ करते थे। इनमें कुछ नेक होते, तो कई दुष्ट! हमारी दिली सद्भावना भले पात्र के प्रति होती थी, भले वह पुरोहित होता या फिर डोम! इन कहानियों को सुनते हुए हमारा मन हर्ष, विषाद, रहस्य-रोमांच और अब क्या होगा की जिज्ञासा से भरा खूब सजग रहता था।
कहावतों में छिपी कहानी, लोरी, खेलगीत, कठबैठी, बुझौवल (पहेली) जैसी ढेरों लोक विधाएं हमारे मनोरंजन के लिए गली-गली में बिखरी पड़ी थीं। कठबैठी और बुझौवल का हल निकालने में खूब दिमागी कसरत करनी पड़ती थी। तब गांवों-कस्बों में गाथा गायक आते थे, जो हर टोले में एक-एक रात रुक के अपनी गाथा सुनाते थे।
यह सारंगी बजाकर विपत्ति में पड़े किसी राजा, साहूकार, साहसी युवक, योगी, राजकुमार के संधर्ष की दास्तान गाकर सुनाते थे। आल्हा, बिरहा, चनैनी तो कथा केंद्रित गायन था ही! जांता गीत, रोपनी, निरवाही, कोल्हुअई जैसे श्रम से जुड़े गीतों में भी जीवन के सुख-दुख के प्रसंग अपनी पूर्ण जीवंतता के साथ उपस्थित रहते थे। यद्यपि यह सयानों के गीत थे, लेकिन मानवीय संस्पर्श और उच्च बिंवात्मक कथ्य के कारण हम इसे भी गुनगुना लेते थे।
हमारे बचपन में जो सबसे बड़ी चीज थी, वह थी लोक जीवन की सांस्कृतिक धड़कनें और समुदाय के बीच सघन संवाद! मेले और त्यौहार हमारे जीवन में सामुदायिक उल्लास के अवसर ले आते थे। हम मिल जुलकर खूब खेलते थे।आज की तारीख में शहर से गांव तक सामूहिकता औरसंवाद की दुनिया का लोप हो चुका है। यहां तक किसुबह-शाम चिड़ियों का चहचहाना हो, या फिर झुंड में ढेर सारी तितलियों का उड़ना-सपने में देखी बात जैसी लगने लगी है।
अभी यह देखने में आ रहा है की पढ़ाई में बेहतर प्रदर्शन की आपेक्षा की सान पर चढ़े आज के बच्चे संवेदना खो रहे हैं। इनके मन से कोमलता, निश्छलता, सहजता, भोलापन, रगात्मकता, चंचलता की वृत्ति विरल होती जा रही है। इन बच्चों में अनियंत्रित उत्तेजना, आक्रोश, हिंसा और आक्रामकता बढ़ रही है।
आज के बच्चे क्रोध में पागल होकर सहपाठी, अध्यापक, प्राचार्य, यहां तक कि मां-बाप पर जानलेवा हमला करने लगे हैं। यह स्थितियाँ मूल्यहीन शिक्षा और उस सांस्कृतिक उजाड़ की देन हैं, जहां बच्चा जी रहा है। निजी क्षेत्र की शिक्षा मूलत: शिक्षा की मुख्य धारा में एक नकारात्मक हस्तक्षेप है।
यह पढ़ाई कम कराती है, पाखंड ढेर सारा करती है। शिक्षाविद अब महसूस करने लगे हैं कि बच्चों को अगर कल का बेहतर नागरिक बनाना है, संवेदनशील मनुष्य के रूप में ढालना है, उसके अन्दर सामाजिकता और समुदायिकता के गुणों की पुनर्स्थापना करनी है तो शिक्षा, खेल और बालसाहित्य के बीच जो दूरी बढ़ गई है, उसे खत्म करना होगा।
मोबाइल में भले ही दुनिया का सारा साहित्य और तथाकथित ज्ञान भरा पड़ा है, मगर यह संस्कृति की आभा नहीं रच सकता है। यह बाल साहित्य से ही सम्भव है। हमें बच्चों को ऐसा महौल देना होगा, जहां बच्चे पढ़ें कम और सीखें ज्यादा! खेलें कूदें और रचनात्मक बनें।
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