दुनिया सूखी लकड़ियों के ढेर पर बैठी हुई है। बस तीली लगाने भर की देर है, किसी का भी घर, दुकान कब जल उठेगा, कुछ पता नहीं। फिर भी लोग खुश हैं। ये किस बात की खुशी है, ये समझना अक्ल से परे है। क्या ये मान लेना चाहिए कि लोग खुश हैं कि आज ज्यादा महंगाई है या वे इसलिए खुश हैं कि अब रोजगार के साधन ही उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए वे भूख के मारे पागल हो गए हैं और हंसे जा रहे हैं। दुनिया में पागलों का हुजूम बढ़ता जा रहा है।
ये पागलपन किस्म-किस्म का है। कोई धर्म को जलाकर रोशनी करने का दावा कर रहा है, कोई दूसरों का घर जलाकर रोशनी करने का दावा कर रहा है और मजे की बात ये है कि हर पागल दूसरे को पागल सिद्ध कर रहा है और खुद को अक्लमंद! हर पागल चाहता है कि दुनिया उसी के कदमों में हो। हर पागल की चाहत है कि वो ही राजा हो। आज के समय में ये माचिस जैसे लोग अब उजाला फैलाने में कतई विश्वास नहीं रखते। ये हर जगह अंधेरे की सत्ता कायम कर देना चाहते हैं।
निस्संदेह महत्वाकांक्षाओं ने हमें तनाव दिया है और तनाव ने हमारे अंदर आग भर दी है। जो जहां- तहां हवा पाकर भड़क उठती है। ऐसा महसूस होता है मानो ये दियासलाई का युग हो। दियासलाई की तीली से दिखने वाले लोगों में बस जरा सी रगड़ पड़ी नहीं कि आग लगी नहीं!
समय ऐसा है कि आप कितना भी बच कर निकलिए रगड़ तो पड़ ही जानी है और आग लग ही जानी है। ये आग से खेलने का वक़्त है। कभी-कभी सोचती हूं कि हाड़-मांस का दिखने वाला आदमी कब जलती मशाल में तब्दील हो क्या कुछ न जला डालेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।
जमाने का नजारा कुछ यूं हो चला है कि आदमी-आदमी नहीं बल्कि माचिस की तीली नजर आते हैं। उनके सिर- सिर न होकर तीली के ऊपरी हिस्से का मसाला प्रतीत होते हैं। इन सब बातों के ऊपर हर तीली दूसरी तीली से सटी सहमी सी बैठी है कि दूसरी वाली कहीं मुझे न जला दे! ये सारी दियासलाइयां हर वक़्त ये सोचती रहती हैं कि सटे रहने में ही भलाई है।
जब आग धधक पड़ेगी तब सब साथ ही तो जलेंगे अत: संगठन में ही ताकत है फिर वह चाहें बचाव के लिए हो या फिर शिकार करने के लिए हो! हम सब तो साथ बैठे हैं, इसलिए हमें क्या डर! मजे की बात है कि जहां आग लगने का बिल्कुल भी खतरा नहीं होता है, हमेशा आग वहीं लगती है।
सूखी लकड़ियों से बिखरे लोग जहां-तहां आग पकड़ लेने को तैयार दिखते हैं। उस पर अगर उन पर ईर्ष्या और अहम का ज्वलनशील मसाला लगा दिया जाए तब तो वे कहीं भी भस्म हो जाने को मचल ही उठते हैं।
आदमी के अंदर इतनी आग भर चुकी है कि वे एक-दूसरे को ही जलाने के काम में लगे हुए हैं। हर तीली दूसरी से बड़ी दिखना चाहती है। अब हर तीली बड़ी आग लगाने की जिम्मेदारी लेना चाहती है। हर दियासलाई आजकल अपने वजूद पर इतरा रही है। हर दियासलाई को ज्यादा से ज्यादा ज्वलनशील मसाले की तलाश है।
ये कैसा युग परिवर्तन है! जब इंसान के पास अपना खुद का सही मकसद नहीं होता है, तब उसकी शक्ति का प्रयोग बुद्धिजीवी सियार किया करते हैं। तो क्या ये मान लिया जाए कि ये सियारों का युग है! जहां शावकों को जीने का कोई अधिकार नहीं है। जीवन अब आनंद का उत्सव न होकर ज्वालामुखियों का समूह प्रतीत होता है।
संगठन की शक्ति क्या होती है, ये कोई दियासलाई से सीखे! हर तीली अपने अंदर आग छुपाए दूसरी को आश्वस्त किए रहती है कि तुम मेरे साथ सुरक्षित हो। क्या हम मनुष्य वास्तव में इंसान कम और दियासलाई ज्यादा बनते जा रहे हैं! अब आग से दिए की रोशनी कोई नहीं बनना चाहता, जिस से कि उजाला हो अब तो सभी का आंनद आग लगाने में है। जलाने में है। हम सभी भस्मासुर बने घूम रहे हैं और समय हमारी बुद्धिहीनता को दर्ज कर रहा है।
अंशु प्रधान
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