सोशल मीडिया पर इन दिनों अतुल सुभाष सुसाइड केस चर्चा का विषय बना हुआ है। बेंगलुरु में एआई इंजीनियर अतुल सुभाष ने लगभग डेढ़ घंटे के वीडियो में बताया है कि उनकी पत्नी, उनके परिवार और फैमिली कोर्ट की जज ने उन्हें परेशान किया। इन आरोपों के बाद इंजीनियर ने आत्महत्या कर ली। इस केस के बाद सोशल मीडिया से लेकर देशभर में चर्चा चल रही है कि लड़कियां लड़कों पर झूठे आरोप लगाती हैं और कानून का गलत इस्तेमाल करती हैं। अभी तो चर्चा हो रही है पर इससे कुछ नहीं बदलने वाला। ना ये सिस्टम, ना सिस्टम की सोच। ना पुलिस का रवैया। ना न्याय प्रणाली की रफ्तार। ना सुधरेगा भ्रष्टाचार। कुछ भी इसलिए नहीं बदलेगा, क्योंकि हमारे देश में एक दिन अचानक जागकर फिर लंबी गहरी नींद में सो जाने वाली सोच समाज में फैली है। जिसे क्रांति तो चाहिए लेकिन अपने घर से नहीं। इसी सोच की वजह से सिस्टम जस का तस बना रहता है। अतुल सुभाष ने खुदकुशी से 24 पन्नों का जो सुसाइड नोट लिखा है और 81 मिनट का वीडियो बनाया है। इनमें उन्होंने अपनी पूरी व्यथा कथा कह डाली है। उन्होंने सुसाइड नोट में लिखा, “मेरे ही टैक्स के पैसे से ये अदालत, ये पुलिस और पूरा सिस्टम मुझे और मेरे परिवार और मेरे जैसे और भी लोगों को परेशान करेगा। और मैं ही नहीं रहूंगा तो ना तो पैसा होगा और न ही मेरे माता-पिता, भाई को परेशान करने की कोई वजह होगी।” अतुल को लगता है कि उनको या उनके जैसे लोगों को न्याय मिलेगा?
देखने वाली बात यह है कि क्या जो आरोप लगे हैं उसके आधार पर जांच करके अतुल सुभाष को न्याय मिलेगा? या फिर कल, आज और कल या फिर कुछ दिन और सब चर्चा करके भूल जाएंगे? सॉरी अतुल सुभाष! कुछ भी नहीं बदलने वाला! जिन माता-पिता और परिवार को सिस्टम के क्रूर पंजों से बचाने के लिए अतुल अपनी जान दे गए, क्या वो बुजुर्ग अब न्याय पाएंगे? एक मामले की सुनवाई करते जस्टिस बीआर गवई ने कहा था कि नागपुर में मैंने एक ऐसा मामला देखा था, जिसमें एक लड़का अमेरिका गया था और उसे शादी किए बिना ही 50 लाख रुपए देने पड़े थे। वो एक दिन भी साथ नहीं रहा था। मैं खुले तौर पर कहता हूं कि घरेलू हिंसा और धारा 498ए का सबसे ज्यादा दुरुपयोग किया जाता है। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने भी तेलंगाना के एक मामले में सुनवाई करते हुए इसके दुरुपयोग की बात कही थी। अगस्त में बॉम्बे हाईकोर्ट ने 498ए के दुरुपयोग पर चिंता जाहिर करते हुए कहा था कि दादा-दादी और बिस्तर पर पड़े लोगों को भी फंसाया जा रहा है। मई में केरल हाईकोर्ट ने कहा था कि पत्नियां अक्सर बदला लेने के लिए पति और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ ऐसे मामले दर्ज करवा देती हैं।
ज्ञात हो कि दहेज कुप्रथा को रोकने के लिए हमारे देश में कई कानून बनाए हैं। असहाय महिलाओं के खिलाफ हिंसा को कम करने के लिए कानून बनाने पर जोर दिया गया था। इसके चलते दहेज निषेध अधिनियम, 1961 बना। दहेज की मांग के बाद घरेलू हिंसा की घटनाएं भी सामने आती रही हैं ऐसे में ‘घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005’ पारित किया गया। इसके साथ ही पुरानी आईपीसी में दहेज उत्पीड़न और दहेज हत्याओं को रोकने के लिए कई प्रावधान किए गए थे। आईपीसी की धारा 498 दहेज से पहले और बाद में किसी भी रूप में उत्पीड़न को दंडनीय और गैर-जमानती बनाती है। 1983 में संसद द्वारा एक आपराधिक अधिनियम ‘आईपीसी 498 ए’ पारित किया था जो कहता था कि दहेज वसूलने के लिए की गई क्रूरता पर तीन या अधिक वर्षों की अवधि की सजा और जुर्माना देना होगा। दहेज उत्पीड़न और दहेज हत्याओं को रोकने के लिए आईपीसी 1961 में एक नई धारा ‘आईपीसी 304 बी’ जोड़ी गई। आईपीसी 304 बी में ‘दहेज हत्या’ का जिक्र है। भारतीय दंड संहिता की धारा 304 बी में कहा गया है कि अगर किसी महिला की शादी के सात साल के भीतर किसी भी जलने या शारीरिक चोट से मृत्यु हो जाती है या यह पता चला है कि उसकी शादी से पहले वह अपने पति या पति के किसी अन्य रिश्तेदार द्वारा क्रूरता या उत्पीड़न के संपर्क में थी। दहेज मांगने का संबंध तब महिला की मृत्यु को दहेज मृत्यु माना जाएगा। कई बार यह विवाहित महिला के लिए सुरक्षा के बजाय हथियार बन गया जिस पर समय-समय पर अदालतों ने भी चिंता जताई।
पिछले दिनों नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) से सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए सवाल के जवाब के हवाले से एक खबर आई थी । उससे पता चला कि एक साल में करीब सवा लाख मुकदमे झूठे पाए गए। ये मुकदमे दूसरों को फंसाने के लिए दर्ज कराए गए थे। जिन लोगों पर मुकदमे किए गए थे, उनके खिलाफ आरोपों की पुष्टि नहीं हो सकी यानी वे झूठे थे। कहीं रास्ते के विवाद में दुष्कर्म का मुकदमा दर्ज कराया गया। कहीं विरोधी पर दबाव बनाने के लिए छेड़खानी का मुकदमा तो कहीं दुश्मनी निकालने के लिए मारपीट का मुकदमा दर्ज कराया गया। इन मुकदमों में फंसने के बाद लोगों का जीवन तबाह हो गया। बिना मतलब की भागदौड़ हुई, ऊपर से पैसा और समय लगा। समाज में लोगों के तरह-तरह के ताने सुनने को मिले। देखा जाए तो इस तरह के मामले नए नहीं हैं। कुछ लोग बदला लेने के लिए कुछ भी करते हैं। आरोप किसी एक आदमी पर नहीं, बल्कि पूरे परिवार पर लगा देते हैं। इनमें बड़ी संख्या में स्त्रियां भी होती हैं। यहां तक कि कई बार बच्चों को भी नहीं बख्शा जाता। खेत की मेड़ जरा-सी इधर-उधर हुई नहीं कि मुकदमे से लेकर खून-खराबे तक बात पहुंच जाती है। हत्याएं तक हो जाती हैं। ऐसे में महाभारत का वह अंश याद आता है जहां दुर्योधन कहता है कि वह पांडवों को सुई की नोक के बराबर भी जमीन नहीं देगा। परिणामस्वरूप इतना बड़ा युद्ध और सर्वनाश हुआ। न कौरव बचे, न ही पांडव राज कर पाए।
आखिर कानूनों में इतनी खामियां क्यों हैं कि कोई किसी के भी खिलाफ झूठा मुकदमा दर्ज करा देता है। जिसके खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया जाता है, उसके पास यदि इतने संसाधन न हों कि वह कानूनी लड़ाई लड़ सके तो उसे सजा भी मिल जाती होगी। बहुत साल पहले फांसी पाए कैदियों की एक रिपोर्ट पढ़ी थी। उसमें अधिकांश ने कहा था कि उन्होंने किसी को नहीं मारा। ग्राम प्रधान या सरपंच ने अपने किसी को बचाने के लिए उनका नाम लिखवा दिया। उन्हें न कानून की कोई जानकारी थी, न वकील को फीस देने के पैसे थे। उन पर अपराध सिद्ध हो गया।
ऐसा नहीं है कि पुलिस को सच्चाई मालूम नहीं होती, लेकिन वह कहती है कि अगर किसी स्त्री ने ऐसे मामले दर्ज कराए हैं तो हमारे हाथ बंधे रहते हैं। सच जानते हुए भी वह कुछ कर नहीं सकती। दहेज प्रताड़ना और दुष्कर्म के मामलों में अक्सर पुरुषों की नौकरी तक चली जाती है। सताई गर्इं स्त्रियों को हर तरह से कानून और पुलिस की मदद मिलनी चाहिए, लेकिन बदले की भावना से किसी पर कोई भी आरोप लगा देना नितांत गलत है। कानून लोगों की मदद के लिए हैं, किसी को सताने के लिए नहीं। उनका दुरुपयोग रोका जाना चाहिए।