इस राष्ट्रपति चुनाव के वक्त देश जैसी कठिन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व संवैधानिक चुनौतियों से जूझ रहा है, उनके मद्देनजर कई पे्रक्षकों द्वारा इसे पिछली आधी शताब्दी का सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रपति चुनाव बताया जा रहा है। निस्संदेह, वह ऐसा है भी, लेकिन उसके संदर्भ में सत्तापक्ष तो सत्तापक्ष, विपक्ष के अब तक के बरताव से भी नहीं लगता कि वह उसे इस रूप में ले रहा है। दोनों पक्षों द्वारा किए गए प्रत्याशियों के चयन में भी यह बात नहीं ही दिखाई देती और जो दिखाई देती है, वह विजय की ऐसी होड़ है, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जिसके बारे में बहुत पहले लिख गये हैं कि वह जाग उठती है तो जो भी आते विघ्न रूप, हों धर्म, शील या सदाचार, एक ही सदृश हम करते हैं, सबके सिर पर पाद-प्रहार। पहले विपक्ष की ही बात करें तो उसने अलग-अलग कारणों से शरद पवार, फारुख अब्दुल्ला और गोपालकृष्ण गांधी के हाथ जोड़ लेने के बाद सिन्हा पर दांव लगाया, तो उसके पीछे कतई यह कारण नहीं कि उसे अचानक उनमें सुरखाब के पर लगे दिखने लगे हैं। उसकी ‘मजबूरियों’ से मिलाकर देखें तो उसके निकट सिन्हा की सबसे बड़ी योग्यता उम्मीदवारी के एलान तक वर्चुअली ही सही, उनका जिताऊ दिखना था और 2014 के बाद से ही अपना बिखराव समेट न पाने वाले विपक्ष के लिए यह सोचना भी कुछ कम रोमांचकारी नहीं था कि वह 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्हें राष्ट्रपति चुनवाकर अपनी एकता का उद्घोष कर दे। भले ही उस एकता की परिधि वृहत्तर विपक्ष को न समेट पाती हो।
दरअसल, इस गत राष्ट्रपति चुनाव की ही तरह इस राष्ट्रपति चुनाव के समीकरण भी ऐसे हैं कि सत्तापक्ष का बिना बाहरी समर्थन के जीतना संभव नहीं है। उसकी उम्मीदें इस बात पर टिकी हैं कि वह उड़ीसा के बीजू जनता दल और आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांगे्रस वगैरह का समर्थन प्राप्त कर लेगा। ऐसे में यशवंत सिन्हा के नाम पर विचार के वक्त विपक्ष को संभवत: इस विचार ने आह्लादित किया कि सिन्हा बीजू जनता दल को उसके सुप्रीमो व उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से अपने संबन्धों के आधार पर अपनी ओर खींच ले आएंगे, साथ ही भाजपा में भी थोड़ी बहुत सेंध लगा सकेंगे। भले ही 2018 में भाजपा से अलग होने के बाद से अब तक का उनका कार्यव्यापार इसकी गवाही नहीं देता। तब से वे अपने गृहराज्य तक में उसके लिए कोई चुनौती नहीं पेश कर पाए हैं।
बहरहाल, विपक्ष ने इस बात को भी दरकिनार कर दिया कि यशवंत सिन्हा का ज्यादातर राजनीतिक जीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक फ्रंट भारतीय जनता पार्टी में ही बीता है और उसने 2018 के बाद के उसके बेहद छोटे हिस्से से ‘खुश’ होना कुूबूल कर लिया, जिसमें नरेंद्र मोदी (भाजपा नहीं) को स्वीकार न कर पाने के बाद उन्होंने भाजपा छोड़ी और कुछ भली-भली बातें कहते हुए तृणमूल कांगे्रस के उपाध्यक्ष पद तक की यात्रा की। विपक्ष की अभिलाषा पूरी करने के लिए इसी तरह की एक अच्छी बात उन्होंने राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनने से पहले अपने ट्वीट में भी की: तृणमल कांगे्रस से इस्तीफा देने और विपक्षी एकता के लिए काम करने की। फिलहाल, वे इस अर्थ में खुशकिस्मत हैं कि अपने-अपने अस्वस्थ अहं व स्वार्थों के बंदी जो विपक्षी दल आमतौर पर किच-किच करने और बिखर जाने के लिए जाने जाते हैं, उन्होंने उनकी उम्मीदवारी को लेकर अद्भुत सौमनस्य का परिचय दिया। इसके बावजूद कि उन्होंने गुजरात दंगों के सिलसिले में नरेंद्र मोदी के माफी मांगने की जरूरत से इनकार करते हुए 2014 में उन्हें भाजपा का प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने का समर्थन किया था।
लेकिन उनके दुर्भाग्य से सत्तापक्ष ने यह सिद्ध करने में कतई देर नहीं की कि विपक्ष डाल-डाल है तो वह पात-पात। उसने उपराष्ट्रपति एम. वेकैयानायडू को ग्यारहवें उपराष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत (2007) और बारहवें उपराष्ट्रपति हाशिम अंसारी (2017) की गति को प्राप्त हो जाने दिया और केरल के राज्यपाल मोहम्मद आरिफ खान समेत दूसरी कई शख्सियतों को, भाजपाध्यक्ष जेपी नड्डा के अनुसार जिनकी संख्या कुल मिलाकर 20 है, नाउम्मीद करते हुए उड़ीसा की अपनी आदिवासी महिला नेता द्रौपदी मुर्मू को मुकाबले में ला खड़ा किया। जाहिर है कि इसके पीछे भी यह तथ्य नहीं है कि उसे द्रौपदी की राष्ट्रसेवाएं इतनी अतुलनीय लगीं कि उसने कृतज्ञता से भरकर उनको देश के शीर्ष पद से नवाजने का फैसला कर डाला। सच्चाई यह है कि उसके निकट यह कांटे से कांटा निकालने जैसी बात है।
‘बिहार के राष्ट्रपति’ के जिस इमोशनल अत्याचार के बूते यशवंत सिन्हा नीतीश के अपने साथ आने की उम्मीद कर रहे हैं, अब उड़ीसा की तो क्या ‘देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति’ जैसे इमोशनल अत्याचार के बूते भाजपा बीजू जनता दल के सुप्रीमो नवीन पटनायक को यशवंत सिन्हा से अपने सम्बन्धों का लिहाज खत्म करने को मजबूर कर देगी। दूसरी ओर झारखंड के मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के कर्णधार हेमंत सोरेन भी अपने कारण देश को पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति न मिल पाने का कलंक नहीं ही ढोना चाहेंगे। तिस पर भाजपा का मंसूबा तो यहां तक बताया जाता है कि वह द्रौपदी को राष्ट्रपति बनाने के बहाने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान व पूर्वोत्तर के विधानसभा चुनावों को भी साधना चाहती है। हां, 2024 के लोकसभा चुनाव को भी।
साध पायेगी या नहीं? अतीत की मिसालों से समझें तो 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में पीए संगमा प्रणव मुखर्जा के मुूकाबले अनुसूचित जातियों व जनजातियों को नहीं साध पाए थे। लेकिन आज बड़ा सवाल इसके बदले यह है कि क्या राष्ट्रपति के, जिन्हें देश का प्रथम नागरिक माना जाता है और जिनके पद में देश की प्रभुसत्ता निहित होती है, चुनाव को भी ऐसे ओछे राजनीतिक मंसूबों व समीकरणों से जोड़ा जाना उचित है?
क्या देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति आदिवासियों का उतना भी भला कर पाएगी, जितना पहले दलित राष्ट्रपति केआर नारायणन या वर्तमान दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने अपने कार्यकाल में दलितों का किया? क्या द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासियों की जमीनें उद्योगपतियों को दिया जाना बंद हो जाएगा? पहली महिला प्रतिभा पाटिल को राष्ट्रपति बना देने से क्या महिलाओं की समस्याओं का तनिक भी समाधान हुआ था? क्या एपीजे अब्दुल कलाम जैसे मुस्लिम राष्ट्रपति के रहते गुजरात दंगों के पीड़ित मुस्लिमों को यथासमय इंसाफ मिल पाया था? और तब से आज तक मुसलमानों का सशक्तीकरण हुआ है या अशक्तीकरण?