Saturday, April 20, 2024
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अब जयंत के कंधों पर बाप-दादा की विरासत का भी भार

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जनवाणी ब्यूरो |

नई दिल्ली: राष्ट्रीय लोकदल के उत्तराधिकारी चौधरी जयंत सिंह के लिए पिता चौधरी अजित सिंह बरगद की तरह थे, लेकिन 6 मई को कोरोना संक्रमण उन्हें निगल गया। पिता अजित सिंह के इस दुनिया से जाने के बाद जयंत पर पूरे ‘जाटलैंड’ को संभालने और पार्टी को मजबूत करने की जिम्मेदारी आ गई। इतना ही नहीं जयंत के कंधों पर अपने दादा पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह की विरासत को संभालने, अजगर (अहिर, जाट, गुर्जर, राजपूत) को पुनर्जीवित करने की भी जिम्मेदारी है।

जयंत सिंह के जिम्मे यह चुनौती ऐसे समय में आई है, जब मुकाबले में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017 में 325 सीट जीतने वाली भाजपा और उनके दादा की विरासत पर कब्जा जमा चुकी समाजवादी पार्टी है। समाजवादी पार्टी की कमान अब पूरी तरह से मुलायम सिंह के बेटे और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के हाथ में है। मुलायम सिंह यादव जयंत के दादा चौधरी चरण सिंह को अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं।

वे चौधरी अजित सिंह को अपना गुरुभाई कहते थे। लेकिन दिलचस्प है कि दिसंबर 1989 में उत्तर प्रदेश की सत्ता मुलायम ने राजनीतिक चुतराई और अपनी सूझबूझ के जरिये चौधरी अजित सिंह  के जबड़े से खींच ली थी।

अजित सिंह का ख्वाब,  जो ख्वाब ही रह गया..

चौधरी अजित सिंह से पिछले 21 की साल की बातचीत में कई बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं बन पाने की टीस उनकी जुबां पर आई। उनसे इस पद और चौधरी चरण सिंह की पूरे उत्तर प्रदेश में राजनीतिक विरासत को 1989 में मुलायम सिंह ने छीन लिया था। इसलिए मुलायम को गुरुभाई कहने पर उन्हें अच्छा नहीं लगता था।

इसके बाद अजित सिंह ने कई बार अपना प्रभाव बढ़ाने, राष्ट्रीय लोकदल को मजबूत बनाने की कोशिश की, लेकिन मुलायम की राजनीतिक समझ के आगे सफल नहीं हो पाए। मुलायम ने पश्चिमी यूपी के कुछ जिलों तक उन्हें राजनीतिक रूप से सीमित कर दिया।

इतना ही नहीं कई बार अजितत को मुलायम के आगे झुककर, समझौता भी करना पड़ा और फिर अलग भी हुए। टीस इतनी बड़ी रही कि कई बार मुलायम और अजित सिंह के हाथ मिले, पार्टी के बीच में गठबंधन हुआ, लेकिन दिल कभी नहीं मिल सका।

ऐसे छिन गए अजित सिंह के राजनीतिक उत्तराधिकार

वर्ष 1989 में जनता पार्टी, जनमोर्चा, लोकदल(अ) और लोकदल(ब) में चारों दल एक झंडे जनता दल के नीचे आए थे। तत्कालीन उत्तर प्रदेश की 425 में से 208 सीट पर जीत हासिल की थी, जबकि बहुमत के लिए कुल 213 विधायक चाहिए थे।

संयुक्त मोर्चा के नेता, तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर अजित सिंह के नाम को हरी झंडी दे दी थी, लेकिन अंदरखाने में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को यह रास नहीं आया। उस वक्त मुलायम सिंह राजनीति में खूब सक्रिय थे। उनका साथ जनेश्वर मिश्र, बेनी प्रसाद वर्मा दे रहे थे।

मुलायम की मदद वीपी सिंह के एक करीबी नौकरशाह ने भी की। सही समय देखकर मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री पद पर दावा ठोंक दिया। दूसरी तरफ अजीत सिंह मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन नौबत अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने की आ गई।

वीपी सिंह ने न चाहते हुए भी दिया था मुलायम का साथ

पर्यवेक्षक बनकर मुफ्ती मोहम्मद सईद, मधु दंडवते, चिमन भाई पटेल गए। मुलायम सिंह ने वीपी सिंह को सही समय पर संदेश भिजवाया और मजबूरी में वीपी सिंह ने मुलायम को मुख्यमंत्री के तौर पर न पसंद करते हुए भी अजित सिंह के पक्ष में समर्थक विधायकों को आने का संदेश नहीं दिया।

नतीजा सामने था। जनमोर्चा के विधायकों के साथ देने के कारण मुलायम सिंह के पक्ष में पांच विधायक अधिक आ गए। मुलायम 5 दिसंबर 1989 को राज्य के मुख्यमंत्री बन गए और अजीत सिंह को दिल्ली की केंद्रीय राजनीति में लौटना पड़ा।

पाला बदलने की नीति ने पहुंचाया नुकसान

राजनीतिक हवा भांपकर पाला बदलने के दांव को मुलायम सिंह ने भी अपनाया था। उनकी पार्टी ने बसपा से गठबंधन कर साझे में सरकार बनाई और समय की नजाकत देखकर गंठबंधन तोड़ा भी। 2003 में भाजपा के बाहरी समर्थन से मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री भी बने।

केंद्र की तत्कालीन एनडीए की अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मधुर संबंध रखा। कांग्रेस के विरोध की राजनीति पर खड़ी हुई समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस की यूपीए सरकार को केंद्र में समर्थन दिया। यूपी में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके चुनाव भी लड़ी, लेकिन पार्टी का वजूद बना रहा।

इसके सामानांतर अजित सिंह संयुक्त मोर्चा की वीपी सिंह सरकार में केंद्रीय मंत्री थे। कांग्रेस की पीवी नरसिंहा राव की सरकार में मंत्री थे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में कृषि मंत्री थे। यूपीए-2 की मनमोहन सिंह सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री थे।

बसपा, सपा सबसे गठबंधन किया और सरकार में भी शामिल हुए, लेकिन हर बार चौधरी के साथ आने और साथ छोड़ने के समय का तालमेल सटीक नहीं बैठा। एक ऐसा भी समय आया, जब उन्हें राजनीति का मौसम समझकर सत्ता के साथ बने रहने वाला नेता माना जाने लगा।

दूसरे चौधरी राष्ट्रीय लोकदल को लोकतांत्रिक स्वरूप देने में चूक गए। इसके कारण अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत उनसे धीरे-धीरे खिसकने लगे। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले चौधरी अजित सिंह से बड़ी चूक  हो गई। वह भाजपा के साथ गठबंधन का तालमेल बनाते-बनाते चूक गए। सपा और कांग्रेस गठबंधन होने में देरी हुई और अंतत: राष्ट्रीय लोकदल को इससे बाहर होना पड़ा।

जयंत को तालमेल बिठाकर बढ़ना होगा आगे

करीब चार साल बाद राष्ट्रीय लोकदल के खाते में खुश  होने का अवसर आया है। चौधरी अजित  सिंह के किसान आंदोलन के पक्ष में लिए गए एक निर्णय ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में रालोद को संजीवनी दे दी है। जब चौधरी जीवन और मृत्यु के बीच में मेदांता अस्पताल में संघर्ष कर रहे थे, तब उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 200 से अधिक सीटों को जीत चुकी थी।

यह सुखद संदेश सुनने के लिए आज चौधरी नहीं है। अब यह सबकुछ आगे पुत्र और मथुरा के पूर्व सांसद जयंत चौधरी के जिम्मे है। जयंत चौधरी को इस राजनीतिक विरासत की बारीकियों को समझकर आगे बढ़ना होगा। राजनीति के जानकार कहते हैं कि युवा जयंत के लिए यह एक परीक्षा भी है। देखना है, वह कहां तक जिम्मेदारी ढोने में सफल होते हैं।

रालोद को क्या है उम्मीद?

रालोद के नेताओं को उम्मीद के पंख लग गए हैं। मेरठ, बागपत, बड़ौत, शामली, बिजनौर, मुजफ्फरनगर तक के रालोद के नेताओं को लग रहा कि 2022 के चुनाव में पार्टी 10 से अधिक सीटें आसानी से जीत जाएगी। समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन होने पर 20-22 और कांग्रेस, सपा, रालोद का गठबंधन होने पर 25-30 सीट जीत सकती है।

रालोद के कोटे से मुलायम सरकार में मंत्री रहे एक नेता का कहना है कि बसपा और रालोद का भी गठबंधन हुआ, तो पार्टी 22-24 सीटों तक जा सकती है। अब देखना है कि चौधरी जयंत सिंह इस राजनीतिक यात्रा में कितना सफल हो पाते हैं।

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