Monday, February 17, 2025
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पहाड़ों की कराहट और प्रकृति का तांडव

RAVIWANI


arvind Kumarहिमालय को अध्यात्म पर्यटन की जगह पैसे कमाने के लालच में बाहर के पर्यटकों के लिए आमोद प्रमोद की जगह बना दिया गया है। यह मनोरंजन पर्यटन हिमालय के पर्यावरण और यहां की संस्कृति को दूषित कर रहा है। धार्मिक स्थलों पर पर्यटकों के आवास के लिए अनगिनत बहुमंजिला होटल आदि बनने से भी हिमालयी तंत्र को नुक्सान पहुंचता है। इन्हीं पर्यटकों द्वारा लाए तथा छोड़े गए प्लास्टिक कचरे के कारण पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंच रही है। रही सही कसर ऊपरी मध्य हिमालयी पर पर्यटक हेलीकॉप्टर उड़ा कर पूरी की जा रही है, जिसके कंपन से पहाड़ की चट्टानें और ग्लेशियर की बर्फ ढीली होकर खिसक रही हैं।

हिमालय पर्वतमाला कुछ वर्षों से बेचैन है और आंदोलित है। लगातार चल रहे भूस्खलन तथा अनियंत्रित बाढ़ ने वहां कहर मचा रखा है। पहली ही नजर में वहां पारिस्थितिकी असंतुलन के चिन्ह दिखाई देते हैं जो प्रकृति प्रदत न होकर मानव द्वारा स्थापित किए गए हैं।

पिछले अनेक दशकों से हिमालयी क्षेत्र में बड़ी संख्या में अवैज्ञानिक तरीके से निर्माण एवं खनन कार्य हुए हैं। इस क्रम में भारी मात्रा में वृक्षों की कटाई हुई है तथा बारुदी विस्फोटकों से सड़क, बांध निर्माण हेतु पहाड़ों को काटा गया है। इन दो प्रमुख कारणों से पत्थर, जल, मिट्टी का आपसी प्राकृतिक जुड़ाव लगातार कमजोर होता गया और उसी अनुपात में पहाड़ों में धंसाव होता गया।

जोशीमठ क्षेत्र में पड़ी दरारें इसी पारिस्थितिकीय तंत्र की विफलता की कहानी है। इस विषय में चिंतन करते समय हमें भारतीय उपमहाद्वीप के सतत् जीवन प्रवाह को इन आठ बिंदुओं से समझने की आवश्यकता है।

  • उत्तर भारत की तराई और मैदान जिस रेत से बने हैं, वे रेत हिमालय के ग्लेशियरों से निकली नदियों से बने हैं।

  • हमारे समस्त खेत और पेय जल स्रोत इन्हीं नदियों के जल पर आश्रित हैं।

  • हमारी झीलें, भूगर्भ जल, तालाब, वृक्ष, झाड़ी वृहद मानसून चक्र के बादलों पर आधारित हैं जो ग्रेट हिमालय की चारदीवारी के कारण उत्तरी एशिया में न जाकर भारत में ही बरस जाते हैं।

  • यहां उगने वाली वनस्पति हमें आयुर्वेदिक प्राणरक्षक जड़ी बूटियें उपलब्ध कराती है और विशाल वृक्ष हमें निर्माण एवं अन्य कार्यों के लिये लकड़ी, र्इंधन प्रदान करते हैं।

  • यहां से चलने वाली हवा और शीत आंधी हमारे आकाशीय पर्यावरण को संतुलित करती है।

  • यह हजारों वर्षों से भारत वर्ष की उत्तरी प्राकृतिक सीमा हैं, जिस कारण विदेशी आक्रांताओं व लुटेरों से भारत इस दिशा से बचा हुआ है।

  • महान हिंदु सनातनी सभ्यता के मूल अध्यात्म का केंद्र शताब्दियों से यही हिमालय ही रहा है। यहां की गुप्त कंदराओं में बैठकर ही तप और ध्यान द्वारा हमारे प्राचीन मनीषियों ने अद्भुत धर्म ग्रंथों की रचनाएं कीं और विश्व के लोगों को ज्ञानमय बनाया। इसी की गोद में भारत के प्रधान प्रधान अराध्य देवालयों का निर्माण हुआ जहां आज भी लाखों भारतीय प्रतिवर्ष आराधना के लिए पहुंचे हैं।

  • मध्य काल में जब पश्चिमी सीमा से विदेशी आक्रांता भारत में घुस कर यहां की सनातन संस्कृति को नष्ट भ्रष्ट कर रहे थे, तब इस हिमालय की गोद में बसने वाले नागरिकों ने ही भारतीय संस्कृति को सुरक्षित एवं अक्षुण रखा।

    तो ऐसे महान ईश्वर समान हिमालय की हमने और हमारे लालची और अदूरदर्शी शासकों ने शन: शन: क्या दशा कर दी इसे भी आज समझ लें।

  • हिमालय को तथाकथित विकास के नाम पर लूट का अड्डा बना दिया और चौड़ी-चौड़ी आल वेदर सड़कें बनाकर संपूर्ण मध्य हिमालय को डायनामाइट के विस्फोटों से चीर-चीर कर दिया, जिसके फलस्वरूप ढीले होते पहाड़ खिसकने लगे और विनाश होने लगा।

  • अवैज्ञानिक तरीके से हिमालय में बहने वाली सदानीरा नदियों के प्राकृतिक प्रवाहों को रोक कर बांध बना दिए गए, जिसके कारण बाढ़ और बादल फटने के गंभीर मामले रोज सामने आने लगे। टिहरी बांध का निर्माण सबसे खतरनाक कार्य था जो नहीं होना चाहिए था। भागीरथी, काली और इनकी सहायक नदियों पर बनाए गए छोटे बड़े बांधों ने पहाड़ के भूगर्भीय संतुलन को बिगाड़ दिया है।

  • अवैध खनन और अवैध वनकटाई के राजनेताओं के समर्थन से बढ़ते मामले हिमालय की दुर्दशा पर शासन प्रशासन और लोगों का अंतिम क्रूर प्रहार है। वृक्ष कटने से पहाड़ पर जमी मिट्टी की पकड़ कमजोर हो गई और पहाड़ गिरने के मामले बढ़ने लगे।

  • पलायन-रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल इन चार अत्यावश्यक जरूरतों के अभाव में हिमालय के गांव के गांव खाली होते जा रहे हैं और वहां की जमीन बंजर होती जा रही है। उत्तराखंड सरकार द्वारा गठित पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के 16000 गांवों में से 3000 गांव इसी पलायन संकट के कारण या तो पूर्ण रूपेण या आंशिक रूप से खाली हो चुके हैं और यह सिलसिला तेजी से जारी है।

  • पहाड़ की जान यहां ऊंचाई पर स्थित हरे घास के मैदान होते हैं, जहां उनके पशु चराई करते हैं और उन पशुओं से उन्हें दूध, घी, ऊन, मांस व चर्म मिलता है। सूखते सुकड़ते ग्लेशियरों और भू स्खलनो के कारण ये एक के बाद एक समाप्त होते जा रहे हैं। इस वजह से न केवल पर्यावरण क्षतिग्रस्त हो रहा है, बल्कि पशुपालक भी अपने परंपरागत स्थान छोड़ कर जा रहे हैं।

  • ग्लोबल वार्मिंग के कारण जिन ग्लेशियरों से उत्तरी पश्चिमी भारत में बारहों मास बहने वाली नदियां निकलती हैं वे ग्लेशियर लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं, जिसके कारण नदियों में पानी की कमी आ गई है। गंगा को पानी देने वाला भागीरथी ग्लेशियर ही इन 50 वर्षों में 5 किलोमीटर पीछे खिसक गया है।

हिमालय को अध्यात्म पर्यटन की जगह पैसे कमाने के लालच में बाहर के पर्यटकों के लिए आमोद प्रमोद की जगह बना दिया गया है। यह मनोरंजन पर्यटन हिमालय के पर्यावरण और यहां की संस्कृति को दूषित कर रहा है। धार्मिक स्थलों पर पर्यटकों के आवास के लिए अनगिनत बहुमंजिला होटल आदि बनने से भी हिमालयी तंत्र को नुक्सान पहुंचता है।

इन्हीं पर्यटकों द्वारा लाए तथा छोड़े गए प्लास्टिक कचरे के कारण पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंच रही है। रही सही कसर ऊपरी मध्य हिमालयी पर पर्यटक हेलीकॉप्टर उड़ा कर पूरी की जा रही है, जिसके कंपन से पहाड़ की चट्टानें और ग्लेशियर की बर्फ ढीली होकर खिसक रही हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि पहाड़ों की टो कटिंग और ज्यादा बारिश से स्थितियां खतरनाक हो रही हैं। पहाड़ों पर लगातार हो रहे निर्माण के कारण पहाड़ों का पूरा गुरुत्वाकर्षण केंद्र डिस्टर्ब हो गया है।कहा गया है कि पहाड़ तभी टिका रह सकता है, जब उसका गुरुत्वाकर्षण केंद्र स्थिर हो।

पहाड़ों पर बेवजह बोझ और तोड़फोड़ से पहाड़ को स्थिर रखने वाला गुरुत्वाकर्षण केंद्र अपनी जगह छोड़ देता है। नतीजा पहाड़ खिसकने लगते हैं, लैंडस्लाइड की घटनाएं होती हैं। उत्तराखंड-हिमाचल में भूस्खलन और पहाड़ों के खिसकने की घटनाएं बढ़ रही हैं।

आने वाले दिनों में ऐसी घटनाएं और बढ़ेंगी। चाहे जोशीमठ हो, नैनीताल, मुनस्यारी, धारचूला या व्यास घाटी का गर्ब्यांग कस्बा, इन सब जगहों पर जो कुछ हो रहा है, वह संकेत कर रहा है कि प्रकृति से छेड़छाड़ बंद होनी चाहिए।


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