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हमारे वेदों में कर्म पर अधिक बल दिया जाता रहा है, जिसका संबंध कर्मकांड अर्थात यज्ञ से है। वेदों में वर्णित मंत्रों का अधिकांश भाग यज्ञों से संबंधित है। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने वेदों में दिखाए मार्ग को आर्य समाज के सिद्धांतों में आत्मसात किया तथा मूर्ति पूजा के स्थान पर जीवन दायनी प्राकृतिक शक्तियों वायु, अग्नि, जल आदि की पूजा को महत्व दिया। हिंदू सनातन वैदिक धर्म है। जिस काल में वेदों की रचना हुई उसे वैदिक काल के रूप में संबोधित किया गया है। यज्ञ और हवन, हिंदू वैदिक संस्कृति का अभिन्न अंग है। जो प्रतिदिन हवन करने का संदेश देता है। प्राचीन काल से धार्मिक अनुष्ठानों में यज्ञ अथवा हवन को हिंदू धर्म में शुद्धीकरण की एक पद्धति माना गया है।
परंतु यहां यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि यज्ञ या हवन मनुष्य को शुद्धिकरण के साथ स्वास्थ्य प्रदान करनें में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। हवन कुंड में समिधा की मदद से अग्नि का प्रज्वलन और फिर उसमे हवन सामग्री की आहुति दिया जाना , सभी कुछ चिकित्सा विज्ञान और विज्ञान के तथ्यों पर आधारित है।
आयुर्वेद, जिसका वर्णन हमारे सभी पवित्र वेदों में मिलता है , विशेषकर ऋग्वेद और अथर्वेद में आयुर्वेद को एक उपवेद की संज्ञा दी गई है। आयुर्वेद की विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों में एक पद्धति यज्ञ और हवन पर आधारित है जिसे ‘धूम्र चिकित्सा’ पद्धति कहा जाता है। इस पद्धति को यज्ञीय धूम्र के अंतर्गत माना जाता है।
आयुर्वेद में औषधीय धुएं का सेवन विभिन्न रोगों के उपचार के लिए किया जाता रहा है। औषधीय धूम्र नाक द्वारा लेने पर सीधे हमारे रक्त में मिलकर शरीर पर सुखद एवं सकारात्मक प्रभाव डालता है। अथर्वेद में तो यहां तक लिखा गया है की यदि व्यक्ति मरणासन्न हो तब भी यज्ञ उसे मौत के मुंह से बचा लाता है।
औषधीय पदार्थों को हवन सामग्री में प्रयुक्त कर, उसके धूम्र से शारीरिक , मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य प्राप्त किया जा सकता है। हमारे वेदों में कर्म पर अधिक बल दिया जाता रहा है, जिसका संबंध कर्मकांड अर्थात यज्ञ से है। वेदों में वर्णित मंत्रों का अधिकांश भाग यज्ञों से संबंधित है।
महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने वेदों में दिखाए मार्ग को आर्य समाज के सिद्धांतों में आत्मसात किया तथा मूर्ति पूजा के स्थान पर जीवन दायनी प्राकृतिक शक्तियों वायु, अग्नि, जल आदि की पूजा को महत्व दिया। पृथ्वी पर निवास करने वाले जंतु जगत से दूषित होते वायुमंडल को यज्ञ से शुद्ध किया जा सकता है।
यज्ञों से निकलने वाला धुआं बादलों में मिलकर जहां वर्षा की कमी दूर करता है वहीं दूसरी ओर वर्षा के जल में अम्लता और क्षारीयता का संतुलन कायम कर, अम्लीय वृष्टि के प्रभाव से बचाता है।यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के मन का शुद्धीकरण करती है। मनुष्यों की ही नहीं, पशु पक्षियों, कीटाणुओं एवं वृक्ष वनस्पतियों के आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है।
जहां यज्ञ होते हैं वह भूमि पवित्र और शुद्ध हो जाती है। अधिकांश तीर्थ वहीं बने हैं जहां बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे। यज्ञ की सबसे से बड़ी विशेषता है-एकता। क्योंकि यज्ञ एक मात्र ऐसा कर्मकांड है जिसमें एक से अधिक लोगों के सहयोग की जरूरत है।
हिंदू जाति का प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व, त्यौहार संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है। कहना अतिश्योक्ति न होगी कि यज्ञ भारतीय संस्कृति का जनक है। हवन में प्राय: समिधा के रूप में आम की लकड़ी सर्वमान्य है, लेकिन अन्य समिधाएं भी विभिन्न कार्यों के लिए प्रयोग की जाती हैं।
प्रत्येक प्रकार की लकड़ी का प्रतीकात्मक रूप से अपना अपना प्रभाव देखने को मिलता है जो उसके औषधीय गुणों के कारण होता है। जैसे मदार की समिधा रोगनाशक है, पलाश की समिधा सकारात्मक सोच उत्पन्न करने वाली है। पर्यावरण की शुद्धता हेतु पीपल की समिधा सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है।
गूलर की समिधा शुभता का संदेश देती है। शमी की समिधा से किया गया हवन पाप नाशक होता है। इसके अतिरिक्त बड़, देवदार, चंदन, बिल्वा आदि की लकड़ी (समिधा) भी प्रयोग की जा सकती है। समिधा सुखी, ठीक आकर की तथा जीव जंतु रहित होनी चाहिए।
हवन में प्रयुक्त होने वाली हवन सामग्री में विभिन्न प्रकार के घटक जैसे केसर, कस्तूरी, चंदन, इलाइची, जायफल, जावित्री और कपूर आदि गंध उत्पन्न करने वाले, घी, दूध, फल और अनाज आदि स्वास्थ्य प्रदान करने वाले, चीनी, सूखे अंगूर, शहद या छुहारा आदि स्वास्थ्य वर्धक मिष्ठान की श्रेणी में आते हैं।
गिलोय, ब्राह्मी, शंखपुष्पी, मुलहटी, बहेड़ा, सोंठ और हरड़ ऐसी औषधीय गुणों से भरपूर हैं। हवन सामग्री के यह सभी घटक हमारे लिए सकारात्मकता और स्वास्थ लेकर आते हैं। सभी घटक औषधीय गुणों से भरपूर है।
यज्ञ और हवन को किसी धर्म विशेष से न जोड़कर इससे मिलने वाले चिकित्सीय लाभ प्रत्येक धर्म के लोगों तक पहुंचना चाहिए। चिकित्सीय यज्ञ का आयोजन ज्ञानी आयुर्वेदाचार्य के सानिध्य और मार्गदर्शन में संपन्न करवाना चाहिए। यज्ञ कोई भी कर सकता है बशर्ते उसके सकारात्मक प्रभाव के प्रति हमारा नजरिया विस्तृत हो, न कि संकुचित।
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