
किसान आंदोलन बहुत नाजुक मरहले में है। दो दिन पहले गाजीपुर बॉर्डर खुलवाने के लिए पुलिस ने शिकंजा कसा तो भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत भावुक हो गए। वे रो पड़े। उनके आंसुओं का असर यह हुआ खत्म माने जाने वाला आंदोलन फिर से जी उठा। राकेश टिकैत की भावुक अपील ने जादू सरीखा काम किया। देखते ही देखते पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हरियाणा के किसान रातोंरात बॉर्डर पर पहुंच गए और खत्म होता हुआ आंदोलन एक बार फिर आबाद हो गया। लेकिन यह सब कहना आसान है। सच यह है कि किसान आंदोलन को खत्म करने के लिए स्थानीय लोगों (पढ़ें भाजपा कार्यकर्ताओं) को किसानों के मुकाबिल खड़ा कर दिया गया है। यह बहुत खतरनाक है। गाजीपुर बॉर्डर और सिंघु बॉर्डर पर तथाकथित ‘स्थानीय लोग’ हाथ में तिरंगा लेकर किसानों के सामने आ गए। सिंघु बॉर्डर पर पत्थरबाजी भी हुई। ऐसा लगता है सरकार किसानों और स्थानीय लोगों को आपस में भिड़ाकर कानून व्यवस्था के नाम पर हर हाल में किसानों को बॉर्डरों से हटाना चाहती है। लेकिन इसकी परिणति क्या होगी, क्या सरकार ने इसका आकलन किया है? क्या सरकार देश के नागरिकों को एक-दूसरे के सामने लाकर खतरनाक खेल नहीं खेल रही है? ये कैसी विडंबना है कि किसानों के हाथों में भी तिरंगा है और उनका विरोध करने वालों के हाथों में भी तिरंगा है?
अगर फ्लैश बैक में जाएं तो एक साल पहले दिल्ली में सीएए के विरोध में चल रहे आंदोलन को खत्म कराने के लिए ऐसे ही तथाकथित स्थानीय लोगों को भाजपा नेता कपिल मिश्रा के नेतृत्व में आगे किया गया था। नतीजा क्या हुआ? पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगा हुआ, जिसमें 50 से ज्यादा लोग मारे गए। दंगाई साफ बच गए। पीड़ित मुकदमे भुगत रहे हैं। क्या सरकार फिर से दिल्ली को दंगों में झोंकना चाहती है?
26 जनवरी को दिल्ली में जो कुछ हुआ, वह गलत हो सकता है, लेकिन इतना गलत नहीं हो सकता कि सरकार अपनी असफलता का ठीकरा किसानों के सिर फोड़ दे? घटना को देश और तिरंगे के अपमान से जोड़ कर मामले को दूसरा रूप दे दे? किसानों और किसान नेताओं पर गंभीर धाराओं में मुकदमे दर्ज कर दे? यह तब है, जब यह साफ हो चुका है कि लाल किले पर झंडा फहराने वाला व्यक्ति दीप सिंह सिद्धू भाजपा का सक्रिय कार्यकर्ता है। फिल्म अभिनेता और गुरदासपुर से भाजपा सांसद सनी देओल का दाहिना हाथ है। भाजपा के शीर्ष नेताओं के साथ उसकी तस्वीरें हैं। सिद्धू को कोई देशद्रोही नहीं कह रहा है।
जो किसान कृषि बिलों का विरोध कर रहे हैं, उनमें से अधिकांश ने लोकसभा और विधानसभाओं में भाजपा को वोट दिया था। खुद राकेश टिकैत ने माना है कि उन्होंने भी भाजपा को वोट दिया था। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। किसी राजनीतिक दल को वोट देना हर नागरिक का अधिकार है। लेकिन जिन लोगों ने सरकार को चुना, उन्हें ही देशद्रोही-खालिस्तानी कहा जाना क्या यह अपने ही वोटरों का अपमान नहीं है? अपने वोटर विरोध प्रदर्शन करने लगें तो क्या वे देशद्राही हो जाते हैं? क्या कोई सरकार अपने ही वोटरों को देशद्रोही कहने का जोखिम उठा सकती है? संभवत: मौजूदा मोदी सरकार दुनिया की इकलौती सरकार होगी, जो अपने ही वोटरों के खिलाफ अपने समर्थकों को खड़ा कर देती है। उनसे गालियां दिलवाती है। उन पर पत्थरबाजी कराती है।
आजकल देशद्रोही कहना और देशद्रोह का मुकदमा दर्ज करना बहुत आम और आसान हो चला है। पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस सांसद शशि थरूर समेत छह पत्रकारों पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया है। इन सभी पर 26 जनवरी को हुए हादसे के बहाने सोशल मीडिया के माध्यम से सामाजिक वैमनस्य फैलाने के आरोप लगाए गए हैं। इन पर देशद्रोह के अलावा आपराधिक षडयंत्र और शत्रुता को बढ़ावा देने सहित आईपीसी के तहत कई आरोप लगाए गए हैं। जिन पत्रकारों पर मुकदमे दर्ज किए गए हैं, उनमें मृणाल पांडे, राजदीप सरदेसाई, विनोद जोसे, जफर आगा, परेश नाथ और अनंत नाथ शामिल हैं।
सरकार हमेशा उन लोगों को निशाना बनाती है, जो उससे असहमत होते हैं। उसके समर्थक कुछ भी लिखते रहें, कुछ भी कहते रहें, उन्हें अभयदान मिलता रहता है। असहमति दर्ज करना, सरकार की नीतियों का विरोध करना हर नागरिक का अधिकार है। यह सच्चे लोकतंत्र में होता है। असहमतियों को तानाशाह दबाते हैं। दरअसल, धारणा बना दी गई है कि जो हमारे साथ नहीं है, वह देश का दुश्मन है। सरकारें देश नहीं होतीं। पत्रकार हों, बुद्धिजीवी हों, सामाजिक कार्यकर्ता हों, राजनीतिक दल हों, जो भी सरकार से असहमति रखता है, उसे निशाने पर ले लिया जाता है। कहा जा रहा है कि विपक्षी दल किसानों को गुमराह रहे हैं। कमजोर विपक्ष कैसे किसानों के बड़े समूह को गुमराह कर सकता है? अगर विपक्षी राजनीतिक दल किसान आंदोलन को समर्थन दे रहे हैं, तो इसमें गलत भी क्या है? सभी राजनीतिक दल सरकार से नाराज वर्गों को अपना समर्थन देते आए हैं। भारतीय जनता पार्टी भी ऐसा करती रही है। 2011 के अन्ना आंदोलन में शामिल कई लोग भाजपा में गए, जो आज भाजपा सरकार में मंत्री हैं। केंद्र में भाजपा की सरकार बनने का श्रेय अन्ना आंदोलन भी जाता है।
किसान आंदोलन किस तरफ जाएगा? क्या सरकार झुकेगी या किसानों की मांगों को दरकिनार करके सरकार अपनी जिद पर कायम रहेगी? इस पर अभी अटकलें लगाना सही नहीं है। लेकिन इतना तय है कि राकेश टिकैत के आंसुओं ने आंदोलन को ज्यादा मजबूती से दोबारा खड़ा कर दिया है। जब आंदोलन शुरू हुआ था तो राकेश टिकैत को कमजोर कड़ी माना जा रहा था। लेकिन वे सबसे मजबूत कड़ी बन कर उभरे हैं। मुजफ्फरनगर में राकेश टिकैत के आह्वान पर हुई महापंचायत में जिस तरह से किसानों का सैलाब उमड़ा है, वह बताता है कि सरकार के आंदोलन खत्म करने के सभी जायज-नाजायज प्रयास भोथरे साबित हुए हैं। सरकार को यह उम्मीद नहीं रही होगी कि राकेश टिकैत के आंसू उसकी रणनीति पर पानी फेर देंगे। अब यह राकेश टिकैत पर निर्भर है कि वह आंदोलन का कहां तक ले जाते हैं? किसानों ने तो उन्हें भरपूर समर्थन देकर अपना फर्ज पूरा कर दिया। अब अगर आंदोलन बिना कृषि कानून वापस कराए बिना खत्म होता है, तो यह राकेश टिकैत की हार होगी, देश के किसानों की भी हार होगी।