विश्वकप क्रिकेट के फाइनल मैच में पीएम नरेंद्र मोदी की उपस्थिति से क्या आपको इतिहास का वह मौका याद नहीं आया जब 1936 के ओलंपिक में हिटलर हॉकी का मैच देख रहा था। हिटलर भले ही कितना बड़ा तानाशाह, क्रूर और आत्म मुग्ध शासक रहा हो लेकिन उसने किसी स्टेडियम का नाम अपने नाम पर नहीं रखा। केवल नाम ही नहीं, आम तौर पर क्रिकेट के फाइनल मैचों के आयोजक कोलकाता के ईडन गार्डन स्टेडियम से छीन कर उसे केंद्रीय सत्ता द्वारा अपने राज्य गृह में रखवाया गया। दिलचस्प बात यह है कि इस विश्व कप का उद्घाटन भी इसी स्टेडियम में हुआ था। भला एक ही स्टेडियम में दो-दो मैच क्यों रखे जाने चाहिए। और वह भी सबसे महत्वपूर्ण उद्घाटन और समापन। क्योंकि यह सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों का घर और उनकी राजनीतिक जरूरत है। बीसीसीआई के मुखिया गृहमंत्री के बेटे जय शाह हैं। जो कल पीएम की बायीं तरफ खुद बैठे थे। यह पूरा नजारा और घटनाक्रम बता रहा था कि कल का मौका किसी खेल का नहीं बल्कि एक प्रायोजित महा इंवेट था जिसको चुनाव से पहले आयोजित किया गया था। यह खेल तो कतई नहीं था और अगर कुछ था तो वह राजनीति थी और छिछले हिंदुत्व का पनीला राष्ट्रवाद था। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं? खेल-खेल होता है। उसकी अपनी मर्यादा होती है। उसके अपने उसूल होते हैं। उसमें दो पक्ष होते हैं और दोनों का अपना स्वतंत्र वजूद और सम्मान होता है। बाकी वह देश हो या कि संस्थाएं उन्हें फैसिलिटेट करने का काम करते हैं। खेल और खिलाड़ी उसके सुपर स्टार होते हैं। और जब आप मेजबान हों तब आपकी जिम्मेदारी और भी ज्यादा बढ़ जाती है। लेकिन यहां खेल नहीं था बाकी सब कुछ की गारंटी की जा रही थी।
मसलन इस आयोजन से कैसे अधिक से अधिक राजनीतिक लाभ उठाया जाए इस बात को टीम मैनेजमेंट के जरिये सुनिश्चित कराया जा रहा था। और इस काम को पहले दिन से ही किया जा रहा था। मसलन पहला मैच हिंदुत्व की प्रयोगस्थली गुजरात में रखा गया। और वह भी भारत-बनाम पाकिस्तान। और मैच के दौरान सारी मर्यादाओं को ताक पर रखकर दोनों टीमों के बहाने हिंदू बनाम मुस्लिम का नरेटिव सेट करने की कोशिश की गयी। स्टेडियम से भारतीय टीम और उसके खिलाड़ियों के बजाय नरेंद्र मोदी के पक्ष में नारे लगाए जा रहे थे। जै श्रीराम जैसे सांप्रदायिक नारों की गूंज पूरी दुनिया में सुनाई जा रही थी। पाकिस्तानी खिलाड़ियों का खुलेआम अपमान करने की कोशिश की जा रही थी और यहां तक कि व्यक्तिगत तौर पर उनके खिलाफ फब्तियां कसी जा रही थीं। और इस बात को सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही थी कि कैसे इसके जरिये देश में चलने वाले नफरत और घृणा के माहौल को मजबूत किया जाए।
हालांकि ऐसा चाहने वाली सत्ता समर्थक जमातें पूरी तरह से सफल नहीं रहीं। इस मामले में पाकिस्तानी खिलाड़ी और भारतीय टीम के सुपर स्टार क्रिकेटर विराट कोहली बेहद संयमित और सूझ-बूझ से काम लिए और उन्होंने किसी भी तरह के सांप्रदायिक उन्माद को आगे बढ़ने से रोकने की कोशिश की। और उन्हें इसमें एक हद तक कामयाबी भी मिली। तमाम मैचों के दौरान शामी और सिराज की तूफानी गेंदबाजी ने सांप्रदायिक ताकतों के मंसूबों पर पलीता लगा दिया। बहरहाल, भारतीय टीम की अपनी मजबूती और खिलाड़ियों के आपसी समन्वय का नतीजा था कि वह बगैर कोई मैच हारे फाइनल मुकाबले में पहुंच गयी। लेकिन फाइनल मैच को सामान्य तरीके से होने देने की जगह जिस तरह से इवेंट साबित करने की कोशिश की गयी वह बेहद अटपटी थी। और लगा कि यह मैच नहीं बल्कि कोई राजनीतिक आयोजन है। सुबह टीम जब अपने होटल से स्टेडियम के लिए निकली तो वह भगवा जर्सी में थी। एकबारगी लगा कि टीम की ड्रेस बदल दी गई है। लेकिन ऐसा नहीं था टीम अपने परंपरागत नीले ड्रेस में ही मैदान में उतरी। ऐसा शायद आईसीसी के बगैर सहमति के संभव नहीं था। इनकी चलती तो वह उसे उसी भगवा ड्रेस में मैदान में उतार देते। लेकिन जय शाह के वश में जितना था उन्होंने उसके जरिये उसे जरूर भगवामय करने की कोशिश की।
उसके बाद फाइनल मैच से पहले वायु सेना के विमानों का इवेंट आयोजित कर दिया गया। भला इसकी क्या जरूरत थी? आज तक क्या कभी इस तरह से किया गया था? भारतीय सेना और उसके जवान इतने सस्ते नहीं हैं कि उन्हें किसी ऐसे-वैसे काम में मनोरंजन के लिए लगा दिया जाए। अगर वायुसेना का चीफ रीढ़ वाला होता तो वही ऐसा करने से इंकार कर देता। खुद रक्षा मंत्री में थोड़ी रीढ़ बाकी होती तो वही इसकी इजाजत नहीं देते। बहरहाल आपने ऐसा करके खिलाड़ियों का कोई भला नहीं किया। बल्कि उनके ऊपर मनोवैज्ञानिक दबाव और बढ़ा दिया। स्टेडियम का नीला दृश्य बता रहा था कि सारे दर्शक भारतीय खिलाड़ियों के पक्ष में हैं। ऐसा लग रहा था कि खिलाड़ी अपने प्रदर्शन से नहीं जीते तो दर्शक जबरन आॅस्ट्रेलिया से कप छीन लेंगे।
और उसी बीच भारतीय पारी के बाद स्टेडियम में सांस्कृतिक नाच-गाने का आयोजन कर पूरे मैच को ही पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया। इन सब का नतीजा यह रहा कि भारतीय खिलाड़ी अपने स्वाभाविक फार्म में रहे ही नहीं। वे अपने स्वाभाविक खेल का प्रदर्शन ही नहीं कर सके। जो टीम दूसरे मैचों को डंके की चोट पर जीती थी। उसने कई बार हार को जबड़ों से छीना था। वह बिल्कुल असहाय थी वह बैटिंग हो या कि बॉलिंग दोनों मोर्चों पर दिख रहा था।
टीम का यह रूप देख कर क्रिकेट के समर्थक समझ ही नहीं पा रहे थे कि आखिर हो क्या रहा है? ऐसे में जो नतीजा आया वह स्वाभाविक था। और अंत में प्रधानमंत्री मोदी ने तो हद ही कर दी। एक स्टेट्समैन की बात तो दूर सामान्य हेड आॅफ स्टेट की तरह व्यवहार करने की जगह उन्होंने एक आम आदमी से भी ज्यादा पक्षपाती रुख दिखाते हुए आॅस्ट्रेलियाई टीम के कप्तान को कप देने के बाद रुक कर फोटो तक खिंचाने का धैर्य नहीं रखा। और भागते दिखे। जिसके चलते कप्तान कुमिंग ठगे-ठगे महसूस कर रहे थे। यह अपमान किसी एक खिलाड़ी, कैप्टन या आॅस्ट्रेलिया का नहीं बल्कि मेजबान देश का है जिसने अपने मेहमानों की न्यूनतम इज्जत भी करनी जरूरी नहीं समझी। जिस देश में ‘अतिथि देवो भव’ की परंपरा है वहां के पीएम का एक विदेशी खिलाड़ी के प्रति यह व्यवहार पूरे देश के लिए एक काला धब्बा है। जिसको कभी नहीं मिटाया जा सकेगा। जब भी फाइनल मैच की बात होगी तो यह याद आता रहेगा।