आज आदमी लोभ में अंधा हो चुका है। निज स्वार्थ में मानवीय मूल्यों की तिलांजलि दी जा रही है। एक संतरे बेचने वाली वृद्धा औरत सड़क के किनारे डलिया में संतरे बेचती थी। एक युवा अक्सर संतरे खरीदता। अक्सर, खरीदे संतरों से एक संतरा निकाल उसकी एक फांक चखता और कहता, ये कम मीठा लग रहा है, देखो! बूढ़ी औरत संतरे को चखती और प्रतिवाद करती, ना बाबू मीठा तो है! वो उस संतरे को वही छोड़, बाकी संतरे ले गर्दन झटकते आगे बढ़ जाता। युवा अक्सर अपनी पत्नी के साथ होता था।
एक दिन पत्नी ने पूछा, ये संतरे हमेशा मीठे ही होते हैं, पर यह नौटंकी तुम हमेशा क्यों करते हो? युवा ने पत्नी को एक मधुर मुस्कान के साथ बताया, वो बूढ़ी मां संतरे बहुत मीठे बेचती है, पर खुद कभी नहीं खाती, इस तरह मैं उसे संतरा खिला देता हूं। एक दिन, वृद्ध औरत से, उसके पड़ोस में सब्जी बेचने वाली औरत ने सवाल किया, ये सनकी लड़का संतरे लेते वक्त इतनी चख-चख करता है, पर संतरे तौलते हुए मैं तेरे पलड़े को देखती हूं, तुम हमेशा उसकी चख-चख में, उसे ज्यादा संतरे तौल देती हो। बूढ़ी मां ने अपने साथ सब्जी बेचने वाली से कहा, उसकी चख चख संतरे के लिए नहीं, मुझे संतरा खिलाने को लेकर होती है। वो समझता है मैं उसकी बात समझती नहीं, लेकिन मैं बस उसका प्रेम देखती हूं पलड़ों पर संतरे अपने आप बढ़ जाते है। किसी ने ठीक ही कहा है कि छीन कर खाने वालों का कभी पेट नहीं भरता और बांट कर खाने वाला कभी भूखा नहीं मरता!
प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा