भारतीय जनता पार्टी ने जनाक्रोश को भांपते हुये त्रिवेंद्र सरकार की गलतियों को सुधार कर उत्तराखंड के लिए नया सख्त भूकानून बनाने का वायदा गत विधानसभा चुनाव में किया था। इससे पहले जनता के रुख को देखते हुये नए भूकानून का मजमून बनाने के लिए पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था। लेकिन चुनाव जीतने के बाद धामी सरकार ने राज्य की बची-खुची जमीनें बचाने और पहाड़ से जनसांख्यकी अक्षुण्य रखने के लिये कठोर कानून तो बनाया नहीं, अलबत्ता त्रिवेंद्र सरकार से जमीनें हड़पवाने के लिए जो कसर बची थी, उसे धामी सरकार ने विधानसभा के नवीनतम बजट सत्र में पूरी कर ली। हैरानी का विषय तो यह है कि जनता को बरगलाने के लिए नए भूकानून का ड्राफ्ट तैयार करने वाली सुभाष कुमार कमेटी अब भी अस्तित्व में है। जब उस कमेटी ने कोई काम ही नहीं करना था या उसकी सिफारिशों की आवश्यकता ही नहीं थी तो उसका गठन क्यों किया गया।
उत्तराखंड विधानसभा के 14 से 17 जून तक चले बजट सत्र में राज्य सरकार ने उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) में एक बार फिर संशोधन कर भूमि उपयोग परिवर्तन संबंधी धारा 143 में नयी धाराएं जोड़ने के साथ ही त्रिवेंद्र सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2018 में औद्योगिक प्रयोजन के नाम से जोड़ी गई उपधारा ‘क’ और ‘ख’ को समाप्त कर दिया। इसके साथ ही अब भूमि उपयोग बदलने की वह बंदिश समाप्त हो गई, जिसमें कहा गया था कि जिस उद्देश्य से जमीन ली गई है, अगर उस उद्देश्य के अनुरूप भूमि का उपयोग नहीं किया गया तो जमीन छीन ली जाएगी। यह प्रावधान इसलिए था, ताकि सौदागर उद्योग के नाम पर सस्ती या रियायती जमीन खरीद कर उसे ऊंचे दामों पर न बेच सकें।
धारा 143 में नवीनतम संशोधन के बाद रियायतों का फायदा उठा कर औने पौने दामों पर जमीनें खरीदने वाले उद्योगपति और भूमि व्यवसायी अब उन्हीं जमीनों को ऊंचे दामों पर बेच कर भारी मुनाफा कमा सकेंगे। यही नहीं, भविष्य में भी भूमि मगरमच्छ उद्योगों के नाम पर भारी मात्रा में जमीनें खरीद कर लोगों की जमीनें खरीद कर भारी मुनाफा कमा सकेंगे। त्रिवेंद्र सरकार के कार्यकाल में भूकानून को लेकर भड़के जनाक्रोश को शांत करने के लिए सरकार और सत्ताधारी दल ने दावा किया था कि अगर जमीन खरीदने वाला उस जमीन का अन्यत्र उपयोग करेगा या आवंटन के लाभ का दुरुपयोग करेगा तो उससे जमीन छीन ली जाएगी। अब सरकार ने कानून बदल कर स्वयं ही मनमानी का रास्ता खोल दिया। यह एक तरह से उत्तराखंड की जनता के साथ खुला धोखा ही है।
दरअसल भाजपा की पिछली त्रिवेंद्र सरकार ने उद्योगों के नाम पर उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) में 2018 में संशोधन किया था तो राज्य की जमीनें खुर्दबुर्द कराने के आरोपों से बचने के लिए इस संशोधित अधिनियम की धारा 143 में क और ख उप धाराएं जोड़ दी गर्इं थीं। उपधारा 143 क में कहा गया था कि ‘परन्तु यह कि राज्य सरकार अथवा जिलाधिकारी जैसी भी स्थिति हो, के द्वारा भूमि क्रय करने की दी गयी अनुमति की शर्तों का पालन न करने पर अथवा किन्हीं शर्तों का उल्लंघन करने पर अथवा जिस प्रयोजन हेतु भूमि क्रय की गयी है उससे अन्यथा प्रयोग करने पर भूमि का अन्तरण शून्य होगा एवं धारा 167 के परिणाम उत्पन्न हो जाएंगे।’
उपरोक्त भूकानून की धारा 167 में कलक्टर को अधिकार दिया गया है कि वह अमुक भूमि को राज्य सरकार में निहित कर उसमें उगे पेड़ों, फसल या सम्पत्ति समेत उसका कब्जा ले। इसी उपधारा में स्पष्टीकरण दिया गया है कि ‘इस धारा में उल्लिखित ‘औद्योगिक प्रयोजन’ शब्द के अंतर्गत चिकित्सा, स्वास्थ्य, एवं शैक्षणिक-प्रयोजन भी सम्मिलित हैं।’ यह स्पष्टीकरण इसलिए दिया गया क्योंकि अस्पताल एवं स्कूल आदि को भी औद्योगिक यूनिट मान लिया गया था और उसी उद्देश्य से स्कूल और निजी अस्पताल वालों ने जमीनें खरीदी थीं। लेकिन व्यवसाय न चल पाने के कारण अब वे जमीनें बेचना चाहते थे।
अब उद्योग के नाम पर जमीन खरीद कर आप उसका कुछ भी कर सकते हैं या ऊंचे दामों पर बेच भी सकते हैं। नवीनतम संशोधन यह भी साबित करता है कि औद्योगीकरण के नाम पर प्रदेश की बेशकीमती जमीनें पहाड़ के लोगों से तो छिन गयी मगर औद्योगीकरण का दावा साकार न हो सका इसलिये भूकानून में संशोधन न केवल निरर्थक बल्कि पहाड़वासियों की आने वाली पीढ़ियों के साथ घोर अन्याय भी था।
दरअसल उत्तराखंड राज्य की मांग केवल आर्थिक विकास और राजनीतिक शक्ति के विकेंद्रीकरण के लिये ही नहीं बल्कि पहाड़ी क्षेत्र की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के लिये भी की गयी थी। इसीलिये उत्तराखंड आन्दोलन में ही अन्य हिमालयी राज्यों की तरह इस क्षेत्र के लिए अनुच्छेद 371 के प्रावधानों की मांग की गई थी। उत्तराखंड वासियों को नवम्बर 2000 में नया राज्य तो मिल गया मगर पूर्वोत्तर की तरह विशिष्ट प्रशासन नहीं मिला। उसके बाद पहाड़ के लोगों ने कम से कम हिमाचल प्रदेश के टिनेंसी लैंड रिफार्म एक्ट 1972 की धारा 118 की तरह नए भूकानून की मांग उठाई, ताकि तराई की तरह बाहरी लोग आकर पहाड़ियों की जमीनें हड़प कर उन्हें भूमिहीन न बना दें और पहाड़ की सांस्कृतिक पहचान ही समाप्त न कर लें।
जनता की मांग को गंभीरता से लेकर राज्य के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने इस दिशा में पहल की। लेकिन भूमि सौदागरों ने उस समय भी दखल दी और अध्यादेश के बाद जो अधिनियम बना उसमें धारा 2 जुड़वा दी, जिसमें कहा गया कि अकृषक द्वारा कृषि योग्य जमीन खरीदने पर बंदिश नगरीय क्षेत्रों में लागू नहीं होगी और जब भी जिस नगर निकाय के क्षेत्र में विस्तार होगा, उन विस्तृत क्षेत्रों में भी बंदिशें स्वत: हट जाएंगी। इस धारा का लाभ उठाने के लिए त्रिवेंद्र सरकार ने सत्ता में आते ही तिवारी और फिर खंडूड़ी सरकार के भूमि कानून की धारा 2 की कमियों का लाभ भूमि व्यवसायियों को देने के लिए प्रदेश के 13 में से 12 जिलों के 385 गांवों को नगर निकायों में शामिल कर 50,104 हेक्टेयर जमीन में खरीद फरोख्त के लिए रास्ता खोल दिया। इस मुहिम के तहत गढ़वाल मंडल में देहरादून जिले में सर्वाधिक 85 ग्रामों के 20221.294 हेक्टेयर ग्रामीण क्षेत्र को नगर निगम के अतिरिक्त हरबर्टपुर, विकास नगर, ऋषिकेश, डोईवाला शामिल किया गया है।