Thursday, September 19, 2024
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राधागोबिंद कर की विरासत दुर्गति से कैसे बचे

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09 9आज, एक महिला चिकित्सक से हैवानियत के मामले को लेकर चर्चित कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कालेज के संस्थापक डॉ. राधागोबिंद कर की जयंती पर यह सोचना किसी त्रास से गुजरने से कम नहीं है कि आज वे हमारे बीच होते तो अपने द्वारा बेहद पवित्र इरादे से स्थापित इस कालेज की ऐसी दुर्गति देखकर कितने व्यथित होते। बहरहाल, जानना दिलचस्प है कि 23 अगस्त, 1852 को हावड़ा के रामराजतला स्टेशन के पास पैदा हुए कर को चिकित्सा सुविधाओं को आम लोगों तक ले जाने की प्रेरणा विरासत में मिली थी। उनके पिता दुर्गादास कर ने भी डाक्टर के रूप में अविभाजित भारत के ढाका में आम लोगों के लिए मिडफोर्ड अस्पताल की स्थापना में नींव की र्इंट की भूमिका निभाई थी। लेकिन उनकी विरासत को आगे बढ़ाने के क्रम में राधागोबिंद ने 1880 में कलकत्ता स्थित बंगाल मेडिकल कालेज (जिसे बाद में कलकत्ता मेडिकल कालेज कहा जाने लगा) से डाक्टरी की पढ़ाई शुरू की तो थियेटर के प्रति अपने आकर्षण से विमुख नहीं हो पाए, जिसके चलते उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी। अलबत्ता, बाद में उन्होंने दत्त-चित्त होकर उसे पूरा किया और 1883 में विशेषज्ञता हासिल करने के लिए स्काटलैंड चले गए, जहां एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से ससम्मान एमआरसीपी की डिग्री हासिल की।

चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में उन दिनों इस डिग्री का इतना जलवा था कि उनके प्राय: सारे मित्रों व शुभचिंतकों ने इसे पा लेने के बाद उनके भारत लौटने की उम्मीद छोड़ दी। उन सबका मानना था कि अब राधागोबिन्द मोटी कमाई के लिए विदेश में ही बस जाएंगे। लेकिन कर उन्हें गलत सिद्ध करते हुए स्वदेश लौटे और बंगाल के बहुविध विपन्न बीमारों की सेवा में लग गए।

उन्होंने उन अभावग्रस्त धुर ग्रामीण क्षेत्रों में भी अपनी सेवाएं दीं, जहां दूसरे डाक्टर जाने तक से घबराते थे। मगर कुछ ही दिनों में वे इस निष्कर्ष पर जा पहुंचे कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता और वे अपना बलिदान करके भी तब तक अपनों का बहुत भला नहीं कर सकते, जब तक अंग्रेजी के प्रभुत्व वाली उन औपनिवेशिक नीतियों का तोड़ नहीं निकाल लेते जो भारतीय भाषाओं में डाक्टरी की पढ़ाई की राह रोके हुए हैं और डाक्टरों की बेतरह कमी के बावजूद उन भारतीय प्रतिभाओं को डाक्टर नहीं बनने दे रहीं, जिनकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं है। फिर क्या था, बंगला में डाक्टरी की पढ़ाई संभव बनाने के लिए उन्होंने बंगला में चिकित्सा शिक्षा की किताबें तो लिखीं ही, कलकत्ता में एक स्कूल आफ मेडिसिन की स्थापना की भी सोच डाली। धन की कमी उनके इस सपने के आड़े आने लगी तो अपनी कई पुश्तैनी संपत्तियां बेच दीं और इससे भी काम नहीं चला तो लोगों से जनसहयोग जुटाने में नाना प्रकार के अपमान भी झेले।

उनका बड़प्पन कि इतने पापड़ बेलकर अपने विदेश के लौटने के साल भर के भीतर ही उन्होंने उक्त स्कूल खोला तो उससे अपना नाम नहीं जोड़ा। हालांकि कलकत्ता स्कूल आॅफ मेडिसिन से आरजी कर मेडिकल कॉलेज तक की यात्रा में कई बार उसके नाम बदले और कई नामचीन शख्सियतों से जुड़े। इन शख्सियतों में ब्रिटेन के प्रिंस अल्बर्ट विक्टर और गवर्नर लॉर्ड वुडबर्न व लार्ड कारमाइकल भी शामिल थे। इस दौरान यह कालेज कर के पथ प्रदर्शन में एशिया के पहले गैरसरकारी मेडिकल कॉलेज के रूप में न सिर्फ बंगाल बल्कि देशभर में हेल्थकेयर के क्षेत्र में प्रकाश स्तम्भ बना व, लेकिन कर का नाम इसे देश को आजादी मिलने के बाद 1948 में 12 मई को मिला, जब वे इस दुनिया में नहीं थे। अनंतर, पश्चिम बंगाल सरकार ने 12 मई, 1958 को इस कॉलेज को अपने अधीन करके पश्चिम बंगाल स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय से संबद्ध कर लिया।

गौरतलब है कि इस कॉलेज का पहला मेडिकल कोर्स तीन साल का था और इसमें बंगला भाषा में चिकित्सा शिक्षा दी जाती थी। आठ साल पहले 2016 में पश्चिम बंगाल ने इस मेडिकल कॉलेज का शताब्दी वर्ष मनाया क्योंकि बेलगछिया मेडिकल कॉलेज के रूप में सौ साल पहले 1916 में इसका औपचारिक उद्घाटन किया गया था। यहां यह भी गौरतलब है कि यह मेडिकल कालेज राधागोबिंद कर की देश को इकलौती देन नहीं है और उन्हें सिर्फ इसी के लिए दूरदर्शी व परोपकारी नहीं माना जाता।

जानकार बताते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में प्लेग की महामारी कोलकाता की सांसें रोकने पर उतर आई तो उन्होंने उसे काबू करने के प्रयत्नों में कुछ भी उठा नहीं रखा। वे खुद एक बैग में जरूरी दवाएं और उपकरण लिये अपनी साइकिल पर विभिन्न क्षेत्रों में घूम-घूम कर उन मरीजों का उपचार किया करते थे, जिनके पास न डाक्टर की फीस चुकाने के लिए पैसे होते थे, न दवाएं खरीदने के लिए। वे ऐसे मरीजों को बिना फीस लिए देखते और यह जताने पर कि वे दवाएं खरीदने में असमर्थ हैं, उन्हें दवाएं खरीदने के लिए पैसे भी देते।

एक दिन उनकी कलकत्तावासियों को प्लेग से निजात दिलाने में लगी आयरिश भगिनी निवेदिता से भेंट हुई तो दो एक मिलकर ग्यारह हो गए और उनके सेवा कार्यों में समन्वय कल्कत्तावासियों के बहुत काम आया। कर यहीं नहीं रुके। उन्होंने विदेशों से मंगाई जाने वाली महंगी दवाओं के सस्ते देसी विकल्पों के विकास के लिए भी जी जान लगाई। अकारण नहीं कि आगे चलकर उन्हें ‘बंगाली केमिस्ट’ की संज्ञा दी गई और उनका उन्नीसवीं शताब्दी के चिकित्सा विज्ञान व चिकित्सा शिक्षा के उन्नायकों व अग्रदूतों में शुमार किया जाने लगा। 1918 में 19 दिसंबर को उनका निधन हुआ तो उनके पास एक घर को छोड़कर कोई निजी संपत्ति नहीं थी। वह घर भी वे अपने द्वारा स्थापित इस कालेज के नाम वसीयत कर गए थे।

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