Friday, November 14, 2025
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पुलिस बल बने धर्मनिरपेक्ष

हरियाणा के एक दलित आईपीएस अधिकारी वाई. पूरन कुमार की हालिया आत्महत्या ने एक बार फिर पुलिस संगठन के भीतर जातिगत भेदभाव के मुद्दे को चर्चा में लाया है। मैंने उत्तर प्रदेश में 32 वर्षों तक पुलिस विभाग में सेवा की और पाया कि पुलिस न केवल जातिवादी है, बल्कि सांप्रदायिक भी है। ये पूर्वाग्रह न केवल जनता के साथ व्यवहार करते समय, बल्कि पुलिस संगठन के भीतर भी व्याप्त हैं। मैं नीचे संगठन के भीतर अपने अनुभव पर चर्चा कर रहा हूं। कुछ समय पहले महाराष्ट्र की एक पुलिस अधिकारी, भाग्यश्री नवटेके का एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वह यह शेखी बघारती हुई दिखाई दे रही हैं कि कैसे वह दलितों और मुसलमानों के खिलाफ झूठे मामले दर्ज करती हैं और उन्हें प्रताड़ित करती हैं। यह भारतीय पुलिस बल में सामाजिक पूर्वाग्रहों की एक कच्ची लेकिन सच्ची तस्वीर पेश करता है।

यह एक सच्चाई है कि आखिरकार हमारे पुलिसकर्मी समाज से ही आते हैं, इसलिए पुलिस संगठन हमारे समाज का सच्चा प्रतिरूप है। यह सर्वविदित है कि हमारा समाज जाति, धर्म, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय आधार पर विभाजित है। इसलिए, जब समाज के लोग पुलिस संगठन में प्रवेश करते हैं, तो वे अपने साथ अपने सभी पूर्वाग्रह और पक्षपात लेकर आते हैं। जब ऐसे लोग सत्ता के पदों पर आसीन होते हैं, तो ये पूर्वाग्रह और भी मजबूत हो जाते हैं। उनकी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद; जातिगत और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह उनके कार्यों को बहुत मजबूती से प्रभावित करते हैं। ये पूर्वाग्रह अक्सर उनके व्यवहार और कार्यों में उन स्थितियों में प्रदर्शित होते हैं जहां अन्य जातियों या समुदायों के लोग शामिल होते हैं।

जब मैं 1976 में गोरखपुर में सहायक पुलिस अधीक्षक (एएसपी) के रूप में तैनात था, तब मेरे ध्यान में स्पष्ट जातिगत भेदभाव की स्थिति आई। एएसपी के रूप में मैं रिजर्व पुलिस लाइंस का प्रभारी था। एक मंगलवार को, जो परेड का दिन था, पुलिस मेस का चक्कर लगाते समय मैंने पाया कि कुछ लोग सीमेंट की मेजों और बेंचों पर बैठकर खाना खा रहे थे, जबकि कुछ जमीन पर बैठे थे। मुझे यह अजीब लगा। मैंने एक हेड कांस्टेबल को बुलाया और खाने की इस स्थिति के बारे में पूछताछ की। उन्होंने मुझे बताया कि बेंचों पर बैठे लोग ऊंची जाति के हैं और जमीन पर बैठे लोग नीची जाति के। पुलिस लाइन में जातिगत भेदभाव का यह खुला प्रदर्शन देखकर मैं हैरान रह गया। मैंने इस भेदभावपूर्ण प्रथा को खत्म करने का फैसला किया। इसलिए अगली बार जब मैंने वही स्थिति देखी तो मैंने जमीन पर बैठे पुलिसकर्मियों से उठकर बेंचों पर बैठने को कहा। मुझे एक-दो बार यही दोहराना पड़ा और मैं अलग-अलग खाने की इस भेदभावपूर्ण प्रथा को बंद कराने में कामयाब रहा।

संयोग से उसी दौरान मेरे बॉस ने मुझसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयुक्त की 1974 की रिपोर्ट पर एक रिपोर्ट देने को कहा, जिसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की पुलिस लाइंस में अलग-अलग खाने की प्रथा थी। मैंने अपने बॉस को बताया कि यह सच है और मैंने हाल ही में इस प्रथा को खत्म किया है। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं बस यह लिख दूं कि अब यह प्रथा नहीं है। मुझे पूर्वी उत्तर प्रदेश के अन्य जिलों के बारे में नहीं पता, लेकिन गोरखपुर जिले में मैंने इसे खत्म कर दिया था।

कुछ समय पहले खबर आई थी कि आज भी बिहार पुलिस में न केवल अलग-अलग खाने की प्रथा है, बल्कि ऊंची और नीची जाति के लोगों के लिए अलग-अलग बैरक भी हैं। यह चौंकाने वाली बात है कि यह आज भी जारी है, जबकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयुक्त ने 1974 में ही इस भेदभावपूर्ण प्रथा की ओर इशारा किया था। दरअसल, पुलिस बल में उच्च जाति के लोगों का वर्चस्व है और इस तरह की भेदभावपूर्ण प्रथाएँ बेरोकटोक जारी हैं। आरक्षण नीति के कारण ही निम्न जातियों, खासकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों (एससी और एसटी) के कुछ लोगों को पुलिस बल में जगह मिली है, जिससे पुलिस बल अधिक धर्मनिरपेक्ष और प्रतिनिधित्वपूर्ण बना है, हालाँकि, अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व अभी भी बहुत कम है। फिर भी, पुलिसकर्मियों में जातिगत, सांप्रदायिक और लैंगिक पूर्वाग्रह काफी प्रबल हैं। यह भेदभाव इस वर्ग के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के साथ व्यवहार एवं पोस्टिंग आदि में भी परिलक्षित होते हैं।

जैसा कि हम जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में प्रांतीय सशस्त्र पुलिस के खिलाफ सांप्रदायिक पूर्वाग्रह की शिकायतें अक्सर आती रही हैं। 1979 में जब मैं 34वीं बटालियन पीएसी, वाराणसी में कमांडेंट के रूप में तैनात था, तब मुझे यह बात सच लगी। इस बात का पता चलने पर मुझे अपने जवानों को धर्मनिरपेक्ष बनाने के लिए काफी प्रयास करने पड़े। मैंने हमेशा उन्हें जाति और सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों से ऊपर रहने का उपदेश देने का ध्यान रखा। मैं उनसे कहा करता था कि धर्म उनका निजी मामला है और आप केवल वर्दी पहनने पर ही पुलिस के जवान होते हैं और कानून के अनुसार काम करने के लिए आपके कर्तव्य हैं।

मेरी लगातार ब्रीफिंग और डीब्रीफिंग का उन पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा और मैं अपने जवानों को धर्मनिरपेक्ष बनाने में सक्षम रहा। 1991 में वाराणसी में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई। मौका था 1991 के आम चुनाव का। एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी श्री चंद दीक्षित विश्व हिंदू परिषद के उम्मीदवार के रूप में वाराणसी शहर से चुनाव लड़ रहे थे। हमेशा की तरह विहिप ने मुसलमानों को वोट देने से दूर रखने के लिए सांप्रदायिक दंगा करवाया। परिणामस्वरूप, कर्फ्यू लगा दिया गया। अखबारों में खबर छपी कि पीएसी के जवानों ने एक मुस्लिम इलाके में लूटपाट और मारपीट की है।

मैंने तुरंत पूछताछ शुरू की। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि ये पीएसी के जवान नहीं, बल्कि सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के जवान थे जिन्होंने मुस्लिम इलाके में लूटपाट, संपत्ति को नष्ट करने और बूढ़ों-महिलाओं की पिटाई की थी। इससे पता चलता है कि सांप्रदायिक पूर्वाग्रह न केवल पीएसी के जवानों में, बल्कि केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में भी मौजूद हैं। जिस इलाके में मेरी बटालियन के जवान तैनात थे, वहाँ से ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली।

पुलिस बल की संरचना में बदलाव लाना भी जरूरी है, जिसमें अल्पसंख्यकों से ज्यादा लोगों की भर्ती करके इसे प्रतिनिधित्वपूर्ण और धर्मनिरपेक्ष बनाया जा सके। अधिकारियों और कर्मचारियों, दोनों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए ताकि उन्हें अनुसूचित जाति/जनजाति, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के मुद्दों के बारे में जागरूक किया जा सके। वैसे तो पुलिस के आचरण पर सब से बड़ा प्रभाव सत्ता में बैठे लोगों का पड़ता है क्योंकि पुलिस को सत्ताधारियों की लाठी कहा जाता है। यदि सरकार का एजंडा ही जाति एवं सांप्रदायिक उत्पीड़न हो तो पुलिस से क्या अपेक्षा की जा सकती है।

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