Friday, April 26, 2024
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चिपको आंदोलन के प्रणेता सुंदर लाल बहुगुणा का महाप्रयाण जिन्होंने ठुकरा दिया था पद्मश्री!

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पत्रकारिता के क्षेत्र में मेरे बड़े भाई जैसे राजीव नयन बहुगुणा के पिताश्री और मेरे हमेशा मार्गदर्शक रहे सुंदर लाल बहुगुणा को कभी भुलाया नही जा सकता। जी हां, वही सुंदर लाल बहुगुणा जो चिपको आंदोलन के प्रणेता एवं देश दुनिया के जाने माने पर्यावरणविद् रहे अब चिरनिद्रा में लीन हो गए है। कोरोना महामारी ने उनको भी 94 वर्ष की आयु में निगल लिया है। वे नौ मई से ऋषिकेश के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उपचाररत थे और वही उन्होंने अंतिम सांस ली।

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ,पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत,वनाधिकार आंदोलन के पुरोधा किशोर उपाध्याय समेत अनेक राजनेताओं ने पर्यावरणविद् सुंदर लाल बहुगुणा के निधन पर गहरा शोक व्यक्त हुए उनके निधन को देश की अपूरणीय क्षति बताया है।सुंदर लाल बहुगुणा देश दुनिया में प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में एक बड़ा नाम थे। सुंदरलाल बहुगुणा ने सन 1972 में चिपको आंदोलन को नई दिशा दी थी और आमजन को वनों के संरक्षण के लिए प्रेरित किया था।

उनके कड़े संघर्ष के कारण ही चिपको आंदोलन की गूंज दुनियाभर में सुनाई पड़ी थी। सुंदर लाल बहुगुणा का नदियों, वनों व प्रकृति से बेहद गहरा नाता रहा। वह वन संपदा को सबसे बड़ी आर्थिकी मानते थे। वह उत्तराखंड में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए छोटी-छोटी परियोजनाओं के पक्षधर रहे। टिहरी बांध जैसी बड़ी विद्युत परियोजनाओं का उन्होंने हमेशा विरोध किया। जिसे लेकर उन्होंने एक बड़े आंदोलन की भी अलख जगाई थी।पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा का जन्म 9 जनवरी सन 1927 को उत्तराखंड के टिहरी जिले के सिल्यारा गांव में हुआ था। अपने गांव से प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद वे पढाई के लिए लाहौर चले गए थे।

वहीं से उन्होंने बीए किया । पढ़ाई के बाद गांव लौटकर सुंदर लाल बहुगुणा ने अपनी पत्नी विमला नौटियाल के सहयोग से सिल्‍यारा में ही ‘पर्वतीय नवजीवन मंडल’ की स्थापना की।सन 1949 के बाद दलितों को मंदिरो में प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने आंदोलन चलाया, साथ ही दलित वर्ग के विद्यार्थियों के उत्थान के लिए संघर्ष किया।सन 1971 में सुन्दरलाल बहुगुणा ने चिपको आंदोलन के दौरान लगातार 16 दिन तक अनशन किया। जिसके कारण वह दुनियाभर में वृक्षमित्र के नाम से प्रसिद्ध हो गए।

पर्यावरण बचाओ के क्षेत्र में क्रांति लाने वाले बहुगुणा के कार्यों से प्रभावित होकर अमेरिका की फ्रेंड ऑफ नेचर नामक संस्था ने सन 1980 में सम्मानित किया। पर्यावरण को स्थाई सम्पति मानने वाले सुंदर लाल बहुगुणा अपने आंदोलन के बलबूते ‘पर्यावरण गांधी’ बन गए।उन्हें अंतरराष्ट्रीय मान्यता के रूप में सन 1981 में स्टाकहोम का वैकल्पिक नोबेल पुरस्कार मिला।सन 1981 में ही सुंदर लाल बहुगुणा को भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा की थी लेकिन सुंदरलाल बहुगुणा ने यह प्रतिष्ठित पुरस्कार स्वीकार नहीं किया।

सुंदरलाल बहुगुणा राजनीति में उस समय आ गए थे जब उनकी खेलने की उम्र थी। मात्र 13 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना राजनीतिक करियर शुरू किया था। राजनीति में आने के लिए उन्हें उनके मित्र श्रीदेव सुमन ने उनको प्रेरित किया था। सुमन महात्मा गांधीजी के अहिंसा के सिद्धांतों के अनुयायी थे। सुंदरलाल बहुगुणा ने उनसे जाना कि कैसे अहिंसा के मार्ग से समस्याओं का समाधान हो सकता है। उन्होंने अपने गांव की पहाड़ियों में एक आश्रम खोला और वही रहकर उन्होंने टिहरी के आसपास के इलाके में शराब के खिलाफ आवाज़ उठाई। सन 1960 के दशक में उन्होंने अपना ध्यान वन और पेड़ की सुरक्षा पर केंद्रित किया, जो बाद में एक बड़े आंदोलन में बदल गया।

इसी आंदोलन ने उन्होंने शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाया।26 मार्च, सन 1974 को चमोली जिले की ग्रामीण महिलाएं उस समय पेड़ से चिपककर खड़ी हो गईं थी जब ठेकेदार के आदमी पेड़ काटने के लिए उनके यहां आए। यह विरोध प्रदर्शन आग में घी की तरह पूरे देश में फैल गया था। सन 1980 में सुंदर लाल बहुगुणा ने पर्यावरण बचाने के लिए हिमालय की 5 हजार किलोमीटर की पदयात्रा भी की और आमजन को पर्यावरण के प्रति जागरूक किया । उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भेंटकर उनसे 15 वर्षो के लिए पेड़ों के काटने पर रोक लगाने की मांग की।

जिसे श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा स्वीकार कर पेड़ों के काटने पर 15 साल के लिए रोक लगा दी गई थी।बहुगुणा ने टिहरी बांधी के खिलाफ आंदोलन में भी अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने कई बार भूख हड़ताल की। तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिंहा राव के शासनकाल के दौरान उन्होंने डेढ़ महीने तक भूख हड़ताल की थी व सालों तक शांतिपूर्ण प्रदर्शन के बाद भी जब सन 2004 में बांध पर फिर से काम शुरू हुआ तो उनका कहना था कि इससे टिहरी के जंगल में बर्बाद हो जाएंगे। उन्होंने कहा था कि भले ही बांध भूकंप का सामना कर ले लेकिन यह पहाड़ को नही बचा पाएगा।उनकी चिंता पहले भी प्रासंगिक थी और आज भी प्रासंगिक है।जिसे सरकारो ने विकास की अंधी दौड़ में अनसुना कर दिया है।

डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)
पोस्ट बॉक्स 81,रुड़की,उत्तराखंड
मो0 9997809955

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