आसमान में सितारे जगमगा रहे हैं और चांद अपनी सोलह कलाएं बिखेर रहा है, पर नजदीक जाते ही पता चलता है कि न सितारों के पास अपनी रौशनी है, न ही चांद ऐसा खूबसूरत है!’ यह किसी साहित्यकार की पंक्ति होती तो हम ऐसी अभिव्यक्ति पर मुग्ध होते; लेकिन यह पंक्ति लिखी है, जस्टिस के. हेमा ने। जस्टिस हेमा के नेतृत्व में केरल सरकार ने मलियाली फिल्म-जगत में फैली गंदगी की जांच के लिए एक आयोग गठित किया था। कहानी फरवरी 2017 से शुरू होती है। खबर आई थी कि केरल की एक जानी-मानी हीरोईन की कार कुछ गुंडों ने अगवा की, उनके साथ छेड़छाड़ की और उसका वीडिओ भी बनाया। खबर फैली तो हंगामा मचा। इससे आहत मलियाली फिल्म जगत की चंद महिला कलाकारों ने, मई 2017 में ‘विमेन इन सिनेमा कलेक्टिव’(डब्ल्यूसीसी) नामक एक संगठन बनाया जिसने केरल सरकार पर दबाव बनाया कि वह मलयाली सिनेमा उद्योग में हो रहे महिलाओं के शोषण की जांच करके उपयुक्त कार्रवाई करे।
नतीजे में राज्य सरकार ने केरल हाईकोर्ट की रिटायर्ड जस्टिस के. हेमा के नेतृत्व में तीन सदस्यों की समिति बनाई। इस समिति में जस्टिस हेमा के अलावा मलयालम फिल्मों की ख्यात अभिनेत्री शारदा और सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी केबी वलसाला कुमारी शामिल थीं। समिति ने सारे मामले की जांच की और 2019 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। तब से सरकारी अनिर्णय में दबी यह रिपोर्ट तब जाकर सार्वजनिक हुई जब ‘सूचना के अधिकार कानून’(आरटीआई) के तहत राज्य के सूचना आयुक्त ने सरकार को रिपोर्ट सार्वजनिक करने का आदेश दिया।
सरकार के कहने पर सूचना आयुक्त ने समाज के हित में अब भी इसके कई हिस्सों, खासकर नामों को सार्वजनिक नहीं करने के निर्देश दिए हैं। 19 अगस्त 2024 को उजागर हुई इस रिपोर्ट ने केरल में जलजला ला दिया है। रोज ही नई-नई महिलाएं, अपने साथ हुए यौनिक अन्याय की बात लेकर सामने आ रही हैं और मलियाली फिल्म जगत की बड़ी-बड़ी हस्तियां मुंह छिपाती, त्यागपत्र देती नजर आ रही हैं।
अपने दो साल के कार्यकाल में ‘हेमा समिति’ ने केरल के फिल्म-उद्योग की गहराई से छानबीन की। शुरू में कलाकार समिति के सामने आकर बातें नहीं बता रहे थे इसलिए पूरी जांच को गोपनीय रखा गया। समिति ने अपने ध्येय के बारे में लिखा : ‘यह समिति मलियाली सिनेमा उद्योग में लैंगिक शोषण और सुरक्षा के उपायों की जांच के लिए बनी है, न कि अपराधियों के नाम उजागर करने के लिए।’
रिपोर्ट ने यह भी कहा कि इंडस्ट्री में सब एक जैसे नहीं हैं। कुछ अच्छे लोग भी हैं, भले गिनती के हों। मशहूर कलाकारों- टेक्नीशियनों तथा अन्य लोगों की बड़ी संख्या है जो खुले आम महिलाओं का शोषण करते हैं, उस पर गर्व भी करते हैं और उसे मर्दानगी समझते हैं। कुछ पुरुषों ने यह कहकर बात को हल्का करने की कोशिश की कि ऐसी घटनाएं केवल फिल्म जगत में नहीं होतीं, बल्कि समाज के लगभग सभी व्यवसायों में होती हैं।
महिलाओं ने बताया कि यहां सिनेमा जगत में उनके सामने पहली शर्त यही रखी जाती कि क्या वे हर तरह का समझौता करने को तैयार हैं। ऐसी शर्त किसी दूसरे व्यवसाय में नहीं रखी जाती है। फिल्मी दुनिया में यह धारणा भी बनी हुई है कि पैसे और ग्लैमर के लिए जो लड़कियां इस क्षेत्र में आती हैं, वे किसी भी तरह का समझौता कर सकती हैं। इस सोच के कारण यौन संबंधों की मांग, उसकी अपेक्षा रखने में किसी को कोई हिचक या संकोच नहीं होता है।
आउटडोर शूटिंग संकट का दूसरा रूप लेकर आता है। लड़कियों के होटल के दरवाजे शराब में धुत्त लोग जोर-जोर से ठोकते हैं – इस तरह कि दरवाजा तोड़कर वे भीतर ही आ जाएंगे। ‘हमें अगली सुबह उन्हीं पुरुषों के साथ ऐसे काम करना पड़ता है, जैसे रात में कुछ हुआ ही न हो ! कई बार तो उसी हीरो के साथ हमें अंतरंग सीन भी करने पड़ते हैं जिसने रात में हमारे साथ वहशीपना किया था; और ऐसे में यदि हमारा सही भाव न आए तो उसी दृश्य का बार-बार रिटेक होता है और निर्देशक की डांट अलग पडती है!’ आम लोग बड़ी आसानी से पूछ लेते हैं कि आप पुलिस के पास क्यों नहीं गईं? यही लोग तब एकदम अलग रवैया अपनाते हैं जब उनके घर की महिला पर अत्याचार हुआ हो। समिति ने लिखा है कि ‘विशाखा गाइड लाइन’का वर्तमान स्वरूप फिल्मी दुनिया के लिए अपर्याप्त है। सरकार को इसकी कोई नई, स्वतंत्र व्यवस्था खड़ी करनी होगी।
‘हेमा कमिटी’न केवल मलयाली फिल्म जगत के पुरुषों के लिए, बल्कि सारे व्यवसायों के पुरुषों के लिए फिर से एक मौका बनाती है कि वे अपनी बीमार मानसिकता से बाहर निकलें। पुरुषों को अपनी आंतरिक गंदगी साफ करनी चाहिए। महिलाओं का यौन शोषण एक बीमार मानसिकता है, उसका हर किसी को विरोध करना चाहिए। ऐसा नहीं करने का ही परिणाम है कि यह खतरा हमारे दरवाजे पर आ खड़ा हुआ है। कोलकाता में महिला डॉक्टर का रेप और हत्या तथा स्कूलों में हमारे बच्चों के यौन शोषण को हम भूलेंगे तो भूल करेंगे।
महिलाएं जागरूक हो रही हैं, वे अब बलात्कार के लिए खुद को दोषी नहीं मानतीं। वे समाज से सवाल पूछ रही हैं। भ्रूण-हत्या, दहेज-हत्या, रेप, विधवा और तलाकशुदा लड़कियों के बारे में पुरुषों की सोच, लड़कियों की पवित्रता पर जोर, सेक्स को लेकर संकुचित, गंदी मानसिकता का नुकसान महिलाओं को ही नहीं, पुरुषों को और सारे समाज को भी उठाना पड़ रहा है। राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में दूसरे राज्यों से लड़कियां ब्याह के लिए खरीदकर लाई जाती हैं। ऐसे में घर के कई पुरुष उस एक महिला के साथ यौन संबंध बनाते हैं।
इन राज्यों में शादी तथा किसी भी उत्सव में, आर्केस्ट्रा के नाम पर 12-13 या उससे भी कम उम्र की बच्चियों से अश्लील नाच नचवाया जाता है। यह सब सारे समाज में विष घोल रहा है। समाज को ऐसी प्रथाएं बंद करनी होंगी, पुरुषों को ऐसे चलन का विरोध करना होगा, मां-बहन की गालियां देना शर्म का विषय बनाना होगा। बीमार प्रथाएं, रिश्तों की गलत मान्यताएं, शराब व दूसरे नशों का चलन सब हमारे नैतिक पतन को तेज कर रहा है। इंटरनेट हमारे बच्चों को बीमार बना रहा है। बीमार समाज बीमार बच्चों की फसल ही तो उगा सकता है।
हमें ‘जस्टिस के. हेमा समिति’का आभारी होना चाहिए कि उसने हमें आईना दिखा दिया है। उसने जो प्रमाण इकट्ठा किए हैं, जैसे दस्तावेज पेश किए हैं, उनमें बदलाव की ताकत है, बशर्ते कि हम बदलने को तैयार हों तथा कानून उस बदलाव को समर्थन देता हो। पुरुष समाज शतुर्मुर्ग की तरह रेत में मुंह गड़ाए रहेगा तो उसके हाथ धूल-गर्द के सिवा कुछ भी नहीं आएगा – स्त्री तो अब उसकी पकड़ से बाहर निकल ही रही है। पुरुष समाज पतित भी होगा और बिखर भी जाएगा।