Sunday, September 8, 2024
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चुनाव नतीजे और समाज

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Samvad 52


JAYPRAKASHपांच राज्यों के चुनाव के नतीजे आ गए हैं। भाजपा ने हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों में जीत हासिल की है। ऐसे समय में जब किसी को भाजपा के जीत की उम्मीद नहीं थी। चुनाव पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों को निराश हाथ लगी है। इसलिए हमें इस जीत के करको पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। चौतरफा विध्वंस जिसमें जलते मणिपुर, रोती महिला पहलवान, आत्महत्या करते किसान-नौजवान-छात्र और 80 फीसदी आबादी के जीवन के लगातार संकट ग्रस्त होते दौर में भाजपा को जीत का जश्न मनाने का मौका मिला है। तो स्पष्ट है कि जनादेश की इस पद्धति में ही लोकतंत्र के संकट और उसकी जटिलताएं को विश्लेषित करने की जरूरत है। मोदी सरकार की नीतियों ने बड़े पैमाने पर उत्पादक शक्तियों के विध्वंस को अंजाम दिया है। नोटबंदी, जीएसटी जैसी कॉपोर्रेट हितैषी नीतियों से देश में तबाही मची है। जिस बडे स्तर पर मोदी सरकार ने सार्वजनिक संपत्तियों को कौड़ी के भाव मित्र पूंजीपतियों को बेचा है (रेवड़ी की तरह बांटा) और विनिवेश तथा विकास के नाम पर कठिन परिश्रम से निर्मित राजकीय संस्थाओं, उद्योगों कॉरपोरेशन को देसी विदेशी पूंजीपतियों के हाथों में सौपा है। इसके चलते श्रमिक वर्ग को उत्पादन प्रक्रिया की मुख्य धारा से बाहर फेंक दिया गया है। इन नीतियों के स्वाभाविक परिणाम स्वरूप सरकार के संरक्षण में कॉपोर्रेट भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया है। जिसने भारत की साख को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावित किया है। (अदानी प्रकरण)। मोदी की सत्ता के केंद्रीय कारण की हवस से देश के बड़े जनमानस में सरकार की मंशा, उद्देश्य और चरित्र को लेकर प्रश्न चिन्ह खड़े हो गये हैं। जिस कारण से समाज की चेतना में निर्णायक और गुणात्मक बदलाव आया है।
‘भाजपा एक अलग चरित्र वाली पार्टी है’ की छवि-जिसे मीडिया द्वारा गढ़ा गया था-दरकने लगी है। चूंकि वर्ण आधारित समाज (जिसे जाति विभाजित समाज पढ़िए) में नागरिक की चेतना को हजार तरीके से प्रदूषित किया जा सकता है। इसलिए धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक गणतंत्र होने के बावजूद मोदी सरकार द्वारा लोकतंत्र के बुनियादी वसूलों को नकारते हुए देश को हिंदू परंपराओं, सांस्कृतिक प्रतीकों और चिंतन पद्धति में खींच लाया गया है। सत्ता प्राप्ति के बाद से संघ के अनुसांगिक संगठनों के हमले कमजोर वर्गों, महिलाओं, आदिवासियों, दलितों और खासकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर बढ़ते गए हैं। धीरे-धीरे अल्पसंख्यक विरोधी राजनीति भाजपा का केंद्रीय एजेंडा बन गई। मोदी और योगी सहित संघ के प्रशिक्षित नेताओं, कार्यकतार्ओं द्वारा मुस्लिम विरोधी राजनीति को देशसेवा और राष्ट्र भक्ति के स्तर तक उन्नत किया जा चुका है।

कानून व्यवस्था के नाम पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई को हर मौके पर क्रूरता पूर्वक अंजाम दिया जाता है। जिससे कानून और न्याय के शासन की धज्जियां उड़ती रहीं। सरकारों के प्रमुख इन कार्रवाइयों पर गर्व महसूस करते रहे और खुलेआम सार्वजनिक मंचों से इन कार्रवाइयों का महिमा मंडल करते हुए देखे गए। बुलडोजरी न्याय को भारत में न्याय और कानून व्यवस्था के प्रतीक में बदल दिया गया। मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकारें हिंदुत्व की नीतियों को नग्न रूप से संविधान और कानून का उलंघन करते हुए लागू कर रही हैं। उसने विविधता वाले भारत के बहुत बड़े वर्ग को सचेत ही नहीं किया है।बल्कि बीजेपी के खिलाफ खड़ा कर दिया है। आप इस संदर्भ में नॉर्थ ईस्ट, साउथ इंडिया और पश्चिमोत्तर भारत की सीमाओं पर घट रही घटनाओं को देख सकते हैं।

एक और बात आरएसएस के निशाने पर देश के सारे वे संस्थान, संगठन और विचार आ गए हैं। जो भारत में धर्मनिरपेक्ष, संघात्मक, लोकतांत्रिक ढांचे के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। जिसमें गांधीवादी संस्थान, अंबेडकर और फुले के साथ दक्षिण भारत के ब्राह्मणवाद विरोधी सामाजिक सुधारवादी तथा भक्ति कालीन दौर के सूफी और प्रेम समन्वयवादी, मठ, मंदिर, विचार और संस्थान (कबीर गुरु नानक देव रविदास आदि) हैं। जिनका हिंदूकरण कर उन पर कब्जा करने की कोशिश लगातार चल रही है। कम्युनिस्ट तो इनके सर्वकालिक शत्रु के रूप में रहे ही हैं। इसके साथ ही आजादी के दौर में विकसित किए गए खादी ग्रामोद्योग, लघु और कुटीर उद्योगों को मित्रों के हाथ सौंप दिया गया है। सर्व सेवा संघ, गांधी शांति प्रतिष्ठान जैसी संस्थाएं भी अब हिंदुत्व के निशाने पर हैं। क्योंकि इनके पास भूमि, भवन, शिक्षण संस्थाओं के रूप में भारी संपदा है।

हम जानते हैं कि काशी में सर्व सेवा संघ और गांधी शांति प्रतिष्ठान नामक संस्थाएं जो 1974 में जेपी आंदोलन की केंद्र थीं। जिनका समावेशी धर्मनिरपेक्ष और भाईचारे वाले समाज तथा विचार के कारण उग्र सांप्रदायिक हिंदुत्व से तीखा विरोध है। आज इन सभी संस्थाओं को ध्वस्त कर उनकी संपदा पर संघ और कॉरपोरेट घराने सरकार के संरक्षण में कब्जा करने में लगे हैं। जिसे हमने काशी में क्रूरतम रूप में हाल के दिनों में देखा है। (याद रखें पिछले 70 वर्षों से ये संस्थाए कांग्रेस और वामपंथियों के विरोध में रही हैं)। 2014 के पहले मानवाधिकार संगठन गांधी व लोहिया के अनुयायी सामाजिक न्यायवादी, वामपंथी धड़े कांग्रेस विरोध की बुनियादी दिशा पर खड़े थे। वे आज संघ के वैचारिकी से टकरा रहे हैं। उन्हें पुनर्विचार के लिए मजबूर होना पड़ा है और वे कॉपोर्रेट हिंदुत्व गठजोड़ विरोधी संघर्ष के विस्तृत दायरे का आधार बन गए हैं। सरकारी संस्थानों से लेकर लघु, मध्यम और बड़े उद्योगों में निजीकरण की आंधी चल रही है। एक अनुमान के अनुसार 10 हजार से ज्यादा उद्योग- जिसमें 500 से लेकर 20 हजार तक कर्मचारी काम करते थे- या तो ठेके पर दे दिए गए हैं या उद्योगपतियों के हवाले कर दिए गए हैं। आउटसोर्सिंग के द्वारा ठेके पर कर्मचारियों की नियुक्ति आज मुख्य प्रक्रिया बन गई है। इसने मध्यमवर्गीय सामाजिक जड़ता को तोड़ने हुए धीरे-धीरे अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर भारत के आत्मनिर्भर विकास के सवाल पर चिंतित दिखने लगे हैं। जो अभी तक हिंदुत्व के बड़े ग्राहक थे। जिस कारण समाज में उद्वेलन की नई गति पैदा हुई है।

इस स्थिति में पांच राज्यों के चुनाव हुए हैं। अगर चुनाव के परिणाम समाज के वास्तविक स्थिति को अभिव्यक्त नहीं करते तो स्पष्ट है कि भारतीय समाज के अंदर अंदर जो असंतोष विकसित होगा। वह भारत के सामाजिक स्वस्थ के लिए खतरनाक हो सकता है। कौन नहीं जानता कि भाजपा की नीतियों ने सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संकट को बहुत गहरा किया है। इसके बावजूद हिंदी इलाके में भाजपा के चुनावी जीत ने कुछ बड़े सवालों को पैदा किया है। इसके साथ बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, गौ रक्षकों और मोरल पुलिसिंग के गिरोहों के अपराध इस कदर सरकार और राजनीति के साथ घुल मिल जाएंगे कि भारतीय समाज को पूरी तरह से नियंत्रण में लिया जा सके। (चुनाव परिणाम आते ही राजस्थान में एक बाबा के विधायक बनने के तुरंत बाद मुस्लिम विरोधी क्रियाकलाप पर नजर डाल सकते हैं।) साथ ही डरी हुई नौकरशाही, पुलिस, ईडी सीबीआई, आईटी, आईबी का जाल तो है ही। जिससे भारतीय समाज को डरा कर नियंत्रण में किया जा सकता है।


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